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________________ वृन्दावनविलास गुणभद्र गुरूने रचा उत्तरपुरानको । । सो देव सुगुरु देवजी कल्यानथानको ॥ रविसेन गुरुजीने रचा रामका पुरान। है जो मोहतिमिरमाननेको भानके समान ॥ जैवंत ॥२७॥ * पुन्नाटगणविषै हुए जिनसेन दूसरे। * हरिवंशको बनाके दास आशको भरे ॥ । इत्यादि जे वसुवीस सुगुण मूलके धारी । * निम्रन्थ हुए हैं गुरू जिनग्रंथके कारी, जैवंत ॥२८॥ वंदों तिन्हें जे मुनि हुए, कविकाव्यकरैया । * वदामि गमक साधु जो टीकाके धरैया ॥ वादी नमों मुनिवादमें परवाद हरै या। . गुरु वागमीकको नमों उपदेश भरैया ॥ जैवंत ।। २९ ॥ ये नाम सुगुरु देवका कल्यान करै है। * भविबंदका तत्काल ही दुखद्वंद हरै है ॥ धनधान्य रिद्धि सिद्धि नवो निद्धि भरै है । . आनंदकंद दे है सबी विन्न टरै है ।। जयवन्त ॥ ३० ॥ यह कंठमें धारै जो सुगुरु नामकी माला । . परतीतसों उत्पीतिसों ध्यावै जु त्रिकाला ॥ इहलोकका सुख भोग सो सुरलोकमें जावै । नरलोकमें फिर आयके निरवानको पावै ॥ जयवन्त ॥ - - + १ पद्मपुराण वा रामायण । २ कुष्टरोग।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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