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________________ ग्रन्थरचना। २७ (विशेषोक्ति) धनाकार करि लोक पट, सकल उदधि मसि तंत। लिखै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन अंत ॥ तीसचौवीसी पाठ। इस ग्रन्थका नाम बहुत थोड़े लोगोंने सुना होगा । कारण इसका यही जान पड़ता है कि, अभी तक यह लोगोके परिचयमें नहीं आया है। हमको विश्वास है कि, प्रकाशित होनेपर चौवीसीपाठके समान इसकी भी जगह २ कीर्ति फैलजावेगी। हो सका तो आगामी वर्षमें जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालयद्वारा इस ग्रन्थके प्रकाशित करनेका प्रयत्न किया जावेगा। तीसचौवीसी पाठ इस समय हमारे पास उपस्थित नहीं है । परन्तु * उसकी कविता कैसी है, यह जाननेके लिये हमारे एक मित्रने उसमेंस थोडेसे पद्य चुनकर भेजे हैं । पाठकोके परिचयके लिये हम उन्हें यहा प्र-* काशित करते हैं. गीता । रमनीय जल दमनीय मल, कमनीय कल शमनीय है। वमनीप दुख यमनीय सुख, भमनीय रुप गमनीय है। जयतीत निभुवन नीत सुरगिर सीत ऐरावीत है। धरि प्रीति ताहि जजीत परम पुनीत धर्म लहीत है। मानन्दकन्द गिनंद चंद, अमंद वंदन कीजिये। पनु दरय उंद सुउंद दे, निरफंद थानक लीजिये ॥ जय०॥ सारनी। गंगा भंगा पानी पंगासारी धारी भानी है। धारा तीनो ताको दोनो तीनो ताएं एनी है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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