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________________ कविवर वृन्दावनजीकी M तीजो मेरं ताके हेरं ऐरावर्ते राजे है। भावी देवं कीजे सेवं जो आनंद साजै है। . माधवी, सिहावलोकन (मुक्तपदगुप्त) मंदर मेरु विराजतु है, नित पुष्करदीपविष अति सुन्दर । सुन्दर दक्षिण भत वसै तित, तीत जिनेसुर धर्मधुरंधर ॥ धर्म धुरंधर सेवत हैं गुन, वृंद सुध्यावत जाहि पुरंदर। जाहि पुरन्दर ध्यावत ताहि, सु थापहुं पूजनको जिनमदर ।। * खेद है कि, हमारे मित्रने केवल यमकानुप्रासयुक्त कविता ही नमूनेके । १ लिये भेजी और शीघ्रताके कारण दूसरी कविता मगानेके लिये हमें अविकाश न मिल सका । ७-८ वर्ष पहले खिमलासा (सागर) के भडारमे । मैने उक्त ग्रन्थ देखा था। मुझे सरण है कि, उसमें अनेक चित्रकाव्य, * और नानाप्रकारके भावपूर्ण काव्य है । इसलिये हम कह सकते है कि, कविवरकी कविता केवल यमक और अनुप्रासोसेही भरी हुई नहीं है। उसमे कविताके सव गुण हैं। इस ग्रन्थके वनानेके विषयमें कविवरने प्रशस्तिमें लिखा है कि"एक समय काशीविष, भयो ससकृत पाठ । काशीनाथ कराइयो, बन्यो भनूपम ठाठ ॥ तबसों यह अभिलाष थी, भापा होय मनोग। अबै मिल्यो सब जोग तव, भयो सुधारस भोग ॥" यथा,___ "दर तत्त्व गुण केवल सु, संवत विक्रमवान । माघ धवल पांचे नवल, पूरण परम निधान ॥" ___ इससे जान पड़ता है, चौवीसीपाठको पूर्ण करके इसी अन्यकी रचना प्रारंभ की गई होगी। चौवीसीपाठ कार्तिक सवत् १८७५ में तयार हुआ था, और यह माघ सवत् १८७६ में तयार हो गया था। AKRRRRRRRRRAKAR
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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