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________________ ARRRRRRRKAR कविवर वृन्दावनजीकी +२६ पवाया है, “ सवत् अठारहसौ पचहत्तर १८७५ कार्तिककृष्णा अमावस्या गुरुवारको यह पुस्तक पूर्ण भया । लिखित वृन्दावनेन निजपरोपका रार्थम्।" इस प्रकार लिखा है। इससे स्पष्ट है कि, सवत् १८७५ में इस * ग्रन्थकी रचना हुई है। * यद्यपि यह ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है। तो भी हम सर्व साधारणके परिचयके । लिये उसमेंसे ३-४ पद्य यहा उद्धृत कर देते हैं. (७). छप्पय । (वीररस रूपकालकार) तप तुरंग असवार धार, तारन विवेक कर।' ध्यान शुकल असि धार, शुद्ध सुविचार सुक्खतर ॥ भावन सेना धरम, दशों सेनापति थापे। रतन तीन धरि सकति, मंत्र अनुभौ निरमापे ॥ सत्तातल सोऽहं सुभट धुनि, त्याग केतु शत अन धरि । इहिविधि समाज सज राजको, अर जिन जीते कर्म भरि ॥ (अनौष्ठय यमकालकार-शान्तरस) चार चरन आचरन, चरन चितहरन चिहन चर। चद चंद तन चरित, चंद थल चहत चतुर नर ॥ चतुक चंड चकचूरि, चारि चिदचक गुनाकर । चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र धनुरहर ॥ चरमचरहितू तारन तरन, सुनत चहकि चिरनंद शुचि। जिनचदचरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रचि रुचि ॥ (लाटानुवधन) बाहर भीतरके जिते, जाहर भर दुखदाय। ता हरकर भरजिन भये, साहर शिवपुर राय ॥
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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