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________________ M ग्रन्थरचना। ज्यों मलयागिरिक विपै, बावन चंदन जान । परसि पौन तसु और तरु, चंदन होहिं महान ॥ देख कुसंगति पायकै, होहिं सुजन सविकार । __ अगनिजोग जिमि जल गरम, चंदन होत अंगार ॥ श्रीचनुर्विशतिजिनपूजा। जैन समाजमे इस ग्रन्थकी बहुत प्रसिद्धि है। आजतक किसी भी पूजा पाठकी इतनी प्रसिद्धि नहीं है, जितनी कविवर वृन्दावनजीकृत चौवीसी पाठकी है । यह वना भी ऐसा अच्छा है कि, भजनप्रेमी लोगोंके हृदयका । हार बन गया है। । इस ग्रन्थके बननेके विपयमें एक आश्चर्यजनक किंवदन्ती प्रसिद्ध है। कहते हैं कि, एक वार पश्चिमकी ओरसे जनयात्रियोका बड़ा भारी संघ आया था, और भेलपुरामे आकर ठहरा था। उसमेंके कुछ सजन वृन्दावनजीमे मिले और इस बातका जिकर किया कि, कल कोई नवीन पाठ । । किया जावे, तो वहुन आनन्द हो । इसके उत्तरमें कविवरने कहा, "व हुत अच्छा, कल नवीन पाठ ला दूगा," और घर आकर रातभरमें इस। * पाठकी रचना कर डाली। दूसरे दिन यात्रियोके हाथमें अन्य दे दिया। तदनुसार उन्होंने बड़े उत्सवके नाप नृत्यगायनपूर्वक चौवीसी पूजन करके - अपने जन्मको सफल किया। अनेक लोगोका दम विषयमे ऐमा कथन है। कि, कविवरने पहले एक यग विस्तृत चौवीसी पाठ बनाया था, जिसके करनेमें यई दिन गने थे। यात्रियोंके कहने से उमी पायो रातभरने । सरोच करके इस डोटे पाटगे रचना की थी। जो हो. परन्तु इसमें ससन्देद नहीं : बिसरियाली कवित्वशक्ति यहुन विचित्र थी । उम्पर दिगार परनेसे उत्सविन्तियाणे असल म्हनेग साहम नहीं होता। * नागोपाट मानिन उमफे बनाने समय नीं है। परन्तु : भाजी राय ली निमें जिमपान सिमने चासोपाट उ.
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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