SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८ कविवर वृन्दावनजीकी जान पाता है कि, पंडिनप्रवर जयचन्द्रजीकी सम्मति के अनुसार हम मारे कविवग्न गनरा व्याकरण शीघ्र ही पढ लिया था। क्योंकि अहं.. त्यासाकेवली नामकी पोथी जो बहुत करके सवत् १८९१ में बनाई गई। है, पति विनोदीलालजीकृत संस्कृतकी मूल पुस्तकका पद्यानुवाद है।इसके सिवाय उनानजो सवन् १८८४की जेठयदी ५कोजयपुरके मुप्रसिद्ध दीवान है। अमरचन्द्रनीको पत्र लिखा था, उसमें प्रथम श्लोक संस्कृतमें लिखा है.-1 "प्रणम्य निजगढन्य जिनेन्द्रं विनसूदनम् । लिण्यतेऽदो वरं पत्रं मित्रवर्गप्रमोददम् ॥" और उराका उत्तर जो अमरचन्दजीने भेजा है, वह भी सव सस्कृतमें। भेजा है। यदि ये गस्कृतज्ञ न होते, तो उन्हें पत्रोत्तर भाषामें ही लिखा। जातासिस्कृतज्ञ होनेका एक तीसरा प्रमाण यह है कि, उन्होंने मथुरानिवासी। पंडित चम्पारामजीसे आदिपुराणके यज्ञाधिकारकी खडान्वयी संस्कृत टीका बनवाके मगवाई थी। जैसा कि, उनकी सर्वत् १८९५ की लिसी हुई चिठीसे विदित होता है। "जज्ञाधिकार जिन आदिपुराणजीका । खण्डान्वयी सुगम तासु प्रबुद्ध टीका । हे मित्र मोहि भति शीघ्र बनाय ठीका । भेलो जिसे पढत भ्रांति मिटै सुहीका ॥" * १ अहल्पासाकेवळीकी जो प्रति हमारे पास है, उसमें लिखा है संवत्सर विक्रम विगत, चन्द्र रंध्र दिगवन्द । माघ कृष्ण आउँ गुरू, पूरन जयति जिनन्द ॥ ___ इसमें 'र' शब्दका अर्थ सन्देहयुक्त है। यदि रंधका अर्थ नव माना जावे, तो उक्त पोयी १८९१ की बनी ठहरती है । परन्तु इसी दोहेके नीचे सवत् । 1 १८८५ माघ शुक्ला चतुर्दशी लिखा है। जिससे अम होता है कि, कहीं रका ! अर्थ आठ न होता हो । क्योंकि बननेके पीछे पुस्तककी प्रति लिखी गई होगी। पहले नहीं जो हो, परन्तु इतना निश्चय है कि, पासाकेवली १८८० के पश्चा तकी बनी हुई है, जब कविवर सरकत हो चुके थे। * २ इस चिट्ठीमें भी रम शब्द दिया है, जिससे आठ नवका अम होता है। RPARMATHAKHARMA मा
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy