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________________ जीवनचरिन। 4-01-3-3 --.".+2 --- - ----- - नग्रन्पो उनाने पीछे पढा भी था. जो कि, उनकी "आदिपुराणतुति "मे विदित होता है । उसमें लिखा है, जिनमेनाचारज फविंदने, यह पुराण भाखा अघहानन। * वृन्दावन ताको रस चासत, जो सब निगमागमको आनन ॥", नसन प्रमाणोसे कविवर पीछेसे सस्कृतके ज्ञाता होगये थे, इस विपयमे अब कोई सन्देह नहीं रहता है। कविवर वृन्दावनजीके समयमें जयपुरमें सर्वार्थसिद्धि, ज्ञानार्णव आदि अनेक ग्रन्थोके भापाटोकाकार पडित जयचन्द्रजी, उनके पुत्र कविवर नन्दलालजी, पडित मन्नालालजी, प्रजाके लिये अपने प्राणोंका उत्सर्ग-कर। देनेवाले दीवान अमरचन्द्रजी,मथुरामें आदिपुराणके संस्कृत टीकाकार प० चम्पारामजी. शेठ लक्ष्मीचन्द्रजी, और प्रयागमे अजमेरवाले विद्वान् भधारक । श्रीललितकीर्तिजी, आदि गण्यमान्य पुरुप जीवित थे। इनमेंसे अनेक महाशयांके साथ कविवरका पत्रव्यवहार हुआ करता था । थोडेसे पत्र जो हमको काशीम प्राप्त हुए है, वे इस प्रन्थमें प्रकाशित किये जाते हैं। उनसे उस समयकी बहुत ही बातें विदित होगी । यदि कविवरके कुटुम्बी जन परिश्रम करे और इस ओर ध्यान देवें, तो उनके सप्रहमें वीसो पत्र प्राप्त हो सकते हैं, जिनसे उस समयकी एकसे एक अपूर्व बातें मालूम हो । * मकती है। । कविचरके समयमें तेरहपथ और गुमानपथका उदय हो चुका था। * कविवर वीसपथी आनायके धारक थे। परन्तु उस समय सर्व साधार।णके किंबहुना विद्वानोके हृदयमें पथोके ऐसे झगड़े नही थे, जैसे कि आ*जकल होते है । पडित जयचन्द्रजीके इस विषयमें कैसे सुन्दर विचार थे, वे उनकी चिट्ठी पढनेसे विदित हो सकते हैं। और वृन्दावनजीके कैसे विचार थे, वे उनकी पद्मावती स्तोत्रके नीचे दी हुई टिप्पणीसे प्रगट होते * है। यदि आजकलके विद्वान् तथा साधारण बुद्धिवाले सजन उक्त दोनो। १जैनमहासमाके भूतपूर्व सभापति राजा लक्ष्मणदासजीके पिता। वे भी वैष्णव * मतके उपामक बने हुए थे। कविवरने उन्हें 'जिनगुनमम करनेके लिये चम्पा रामजीको लिखा था। RKKARKAR
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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