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________________ ૧૦૨ वृन्दावनविलास wwwwww वर्णसवैयाप्रकरणसप्तक। मंदिरा ( ७ भगण १ गुरु) * काल अनादि वितीत भयो, पगि पुग्गलसों जिय प्रीति ठई ।। * लाख चुरासिय जोनिनमें, दुख भोगतु है तिहिं संगतई ॥ * श्रीजिनवैन गहै न कमी, मनु ज्ञायकता गुन गोई गई। आप खरूप न जान सकै जु, पियो मदिरा मदमोहमई ॥९॥ मत्तगयन्द ( ७ भगण २ गुरु) जन्मउछाह-निवाह-नियोग, विचारि हिये हरि हर्षित हो है। । * आवत 'वृद' समाज समें वह, औसर देखत ही मन मोहै ॥ जाय सची जननी ढिगते, प्रभु लै कर सौपति है पतिको है। . इन्द्र जिनिन्द्रको गोद धेरै, चढ़े मत्तगयंद इरावत सोहै॥९५॥ मिला ( ८ सगण) अपनी विरदावलि पालनको, तुव संकट काटि वहावहिंगे।। * करुनानिधिवान निवाहनको, कछु लाज हियेमहँ लावहिंगे।। शरनागतवच्छल दीनदयाल, तभी प्रभुजी कहिलावहिँ गे। मति सोच करोभविवृंद तुम्हें, सुखकंद जिनंद्र मिलावहिंगे९६१ भुजंग (८ यगण) । * कभी चेतनाकी निशानी न जानी,मनों ज्ञानवानी नसानी दसा है , तथा जैनवानी विजानी नही जो, मुनी भेदज्ञानी कसोटी कसा है। १ इसे मालिनी उमा तथा दिवा भी कहते हैं । २ इसे मालती तथा इंदव भी कहते हैं। ३ दुर्मिल भी इसीका नाम है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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