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________________ छन्दशतक। शुभगीत ( मात्रा २७) जिनंदको गिरिराज ऊपर, धारि हरषसहीत है। * सुरेशने अभिषेश कीनी, जो सनातन रीत है। सची रची सिंगारसों छबि, कहि न जात पुनीत है। भरी दशों दिशि कामिनी, सुरगावती शुभगीत है ॥९०॥ हरिगीति ( मात्रा २८) . गरमावतारसमय जिनेसुर, मातुपर धरि प्रीति है। सुरकन्यका सेवा करें, जिहि मांति जिनकी रीति है ॥ जननी लहै सुख 'बुंद' सोई, करहि सकल विनीति है। करताल वीन मृदंग लै, गावै मनोहरिगीति है । ९१ ॥ सुगीतिका ( मात्रा २८) वृषभेश व्याह उछाह. घर घर, होत अनंदवधाव ही। धिरनिंद इंद नरिंद चन्द, सबी बराती आवही ॥ जह होत मंगल मोद मंजुल, 'वृंद' सब सुख पावहीं। मन होत वस जस सुनत गान, सुगीति कामिनि गावहीं ॥१२॥ शुद्धगीता (मात्रा २८।) सुनो संसारमें आके, जिन्होंने काम जीता है। सबी मिथ्यातको छोड़ा, गुरुवानी अधीता है। वही है धन्य हे माई, बड़ाई कामकी ता है। प्रभूकी भक्तिमें भीने, जु गावै शुद्धगीता है ॥ ९३ ॥ इति गीताप्रकरणसप्तक । - १चारों चरणोंके आदिमें सगण होता है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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