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________________ छन्दशतक। चहै कामभोगी मनोगी विषैभोग, भोगी विषैविष्यहीमें धसाहै।। * जिते जक्तके जीवरासी निवासी, तिन्हें मोह आसी भुजंगे डसा है । किरीट ( ८ भगण ) गंधकुटी जुत श्रीजिनकी, महिमा कहिवेकहँ मो मन लाजत ।। होत अनुपम रंग तहाँ जब, इंद्र नमें शिर नाय समाजत ॥ | इंद्रनिकी दुति श्रीपतिके पद-कंज नखावलिमें छबि छाजत । । * श्रीपतिके नखकी दुतिसंजुत, इंद्रन सीस किरीट विराजत ९८ ॥ * माधवी ( ८ सगण १ गुरु) *जहं द्वादश जोजन गोल शिलापर, ठाट रच्यो निरवाधवी हैजू।। । उपमा तिहुलोकविषै नलसै, महिमाजलराशि अगाधवी है जू ॥ निधि द्वार खरी कर जोर जहाँ, चितचिंतित देत सुसाधवी है ।। * जिनराज समौसृत साज तहाँ, द्रुमराजनि राजति माधवी है जू। द्वितीय माधवी (७ सगण १ यगण ) जहँ द्वादश जोजन गोल शिलापर, ठाट रच्यो निरवाधवी है। । उपमा तिहुलोकविषै न लसै, महिमा जसु वृंद अगाधवी है ॥ * निधि द्वार खरी कर जोर जहाँ, चितचिंतित देत सुसाधवी है।। जिनराज समौसृत साज तहां, द्रुमराजनि राजति माधवी है। इति वर्णसवैयासप्तक। १ सुन्दरी, मल्ली, चन्द्रकला, सुखदानी भी इसे कहते हैं। "माधवी है जू' की वी लघु न पढके यदि गुरु पढी जावे, तो ७ सगण १ यगण और १ गुरु होता है । २ यह प्रकारान्तर है।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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