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________________ ७६ वृन्दावनविलास गुरुइको लघु कहत है, समुझत सुकवि सुचेत ॥ ६॥ ___ अथ आठोंगनके खामी, फल, और लक्षण । दोहा। तीनवरनको एक गन, लघु गुरुतै वसु मेद । तासु नाम लच्छन सुनों, स्वामी सुफल अखेद ॥ ७॥ सवैया छद । ( मात्रा ३१) मगन तिगुरु भू लच्छलहावत,नगन तिलघु,सुर शुभफल देत, * भगन आदि गुरु इंदु सुजस लधु, आदि यगन जल वृद्धि करेत।' *रणपर निर्भर है। जैसे; "इंद्र जिनिंद्रको गोद धरे चढ़े मत्तग।यन्द इरावत सोह" सवैयाके इस पदमें को और ढ़े यद्यापि गुरुवर्ण है, परन्तु लघु पढ़े जाते हैं। इसलिये इनकी एक एक ही मात्रा समझी जावेगी। संस्कृतका संयुक्ताचं दीर्घम् यह नियम भी कहीं २१ भाषामें नहीं माना जाता। जैसे घर द्वार। इसमें द्वा सयुक्तवर्ण है, इस-1 ¥ लिये इसके पूर्व र को गुरु पढ़ना चाहिये । परन्तु भाषावाले इसे लघु ही। पढ़ते हैं। १ इस संवैया में बहुत ज्यादा विषय कह दिया गया है । उसे हम स्पष्ट कर देते है। नामगण। लक्षण। गणका स्वामी । फल । .sssमगण तीनो गुरु पृथ्वी लक्ष्मी ।।।।नगण तीनों लघु सुर शुभ s।। भगण आदिमें गुरु चन्द्रमा सुयश 15 यगण आदिमें लघु वृद्धिकर । जगण मध्यमें गुरु अग्नि मृत्यु JSIS रगण मध्यमें लघु 15 सगण अन्तमें गुरु वायु भ्रमण ss|तगण अन्तमें लघु नभ जल अमर शुन्य
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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