SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छन्दशतक। ७७ रगन मध्यलघु अगनि मृत्यु गुरुमध्य जगन रविरोग निकेत।* सगन अंतगुरु वायुभ्रमन तगनंऽत, लघू नम शून्य फलेता॥८॥ दोहा। मगन नगन भगनो यगन, शुभ कहियतु है येह ।। रगन जगन सगनौ तगन, अशुभ कहावत तेह ॥ ९ ॥ मनुजकवितकी आदिमें, करिये तहां विचार। देवप्रबंधविषै नहीं, इनको दोष लगार ॥ १० ॥ त्याग निरख नरकवितमहँ, अंगन मनहिं विलखाय । आये शरन जिनेंदके, निज निज दोष विहाय ॥ ११ ॥ सुधासिंधुमहँ गैरलकन, मिलत अमी हे जात । यह विचार गुरु ग्रंथमहँ, गहन करी गनत्रात ॥ १२ ॥ गहत प्रतिज्ञा वृंदकवि, कर गुरु चरन प्रनाम । अरथसहित सब छंदके, परै अंतमें नाम ॥ १३ ॥ आठ गननके छंद जे, तिनके गन जुत नाम । छंदमाहि गरमित रहै, जिनमें जिनगुणग्राम ॥ १४ ॥ स्यादवादलच्छनसहित, जिनवानी सुखकंद । ताहीको रस छंदमें, प्रगट धरत भविवृंद ॥ १५॥ इति पीठिकावन्ध । १ देवकाव्य अर्थात् तीर्थंकरादि पूज्य पुरुषोंके चरित्रमें अशुभगणोंका दोष नहीं माना है। २ अगण अर्थात् अशुभगण । ३ विषकी कणिका ।। 1 ४ अमृत ।
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy