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________________ छन्दशतक। (१५) अथ छन्दशतक लिख्यते। दोहा। वंदों श्रीसरवज्ञपद, निरावरन निरदोष । * विधनहरन मंगलकरन, बांछितार्थसुखपोष ॥ १ ॥ सिद्धशिरोमनि सिद्धिप्रद, बंदों सिद्धमहेश ।। छंद सुखदरचना रचों, मेटो सकलकलेश ॥२॥ छंद महोदधितै लियो, मैति-भाजन-मित काढ़।। लिखों सोइ संछेपसों, वालख्याल अवगाढ़ ॥ ३ ॥ छंदनको लच्छन लिखत, बढ़े बड़ो विस्तार । * तातै कछु प्रस्तार लखि, लिखों छंद सुखकार ॥ ४ ॥ लघुकी रेखा सरल है, गुरुकी रेखा बंक । इहि क्रमसों लघुगुरु परखि, पढ़ियो छन्द निशंक ॥५॥ कहुँ कहुँ सुकवि-प्रबन्धमहँ, लघुकों गुरु कहि देत । । १ अपनी बुद्धिरूपी वर्तनके प्रमाण । २ छन्दशास्त्रमें नानाप्रकारके। * छन्दोंके विचार और प्रकार प्रकाशित करनेवाले ९ प्रत्यय होते हैं ।। । उनमें एक प्रस्तार भी है । जितनी मात्राके छन्दोंके जितने भेद हो * सकते हैं, उनके रूपोंके दिखा देनेको ही प्रस्तार कहते हैं। ३ छन्दशास्त्रमें * लघुका रूप । इस प्रकार सरल रेखा माना गया है और गुरुका '5' इस प्रकार बक अर्थात् टेड़ा । इस्वको लघु और दीर्घको गुरु कहते है। *४ भाषा छन्दशास्त्रमें कहीं २ गुरुको लघु और लघुको गुरु मानकर। । पढ़नेकी परिपाटी है । यथार्थमें अक्षरका गुरुत्व और लघुत्व उसके उच्चा--
SR No.010716
Book TitleVrundavanvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Hiteshi Karyalaya
Publication Year
Total Pages181
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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