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________________ श्रमण-धर्म है। व्रतपालन के क्षेत्र में तनिक सा शथिल्य (ढील) किसी भी भारी अनर्थ का कारण बन सकता है। आप लोगों ने देखा होगा कि तम्बू की प्रत्येक रस्सी खूटे से कस कर बॉधी जाती है। किसी एक के भी थोडी सी ढीली रह जाने से तम्बू मे पानी श्रा जाने की सम्भावना घनी रहती है। अस्तु, अचौर्य व्रत की रक्षा के लिए साधु को बार-बार प्राज्ञा ग्रहण करने का अभ्यास रखना चाहिए | गृहस्थ से जो भी चीज ले, श्राज्ञा से ले। जितने काल के लिए ले, उतनी देर ही रक्खे, अधिक नहीं । गृहस्थ आज्ञा भी देने को तैयार हो, परन्तु वस्तु यदि साधु के ग्रहण करने के योग्य न हो तो न ले। क्योंकि ऐसी वस्तु लेने से देवाधिदेव तीर्थकर भगवान की चोरी होती है। गृहस्थ श्राज्ञा देने वाला हो, वस्तु भी शुद्ध हो, परन्तु गुरुदेव की श्राज्ञा न हो तो फिर भी ग्रहण न करे । क्योकि शास्त्रानुसार यह गुरु अदत्त है, अर्थात् गुरु की चोरी है। एक प्राचार्य तीसरे अचौर्य महाव्रत के ५४ भंगो का निरूपण करते हैं । अल्प - थोडी वस्तु, बहु-अधिक वस्तु, अणु = छोटी वस्तु, स्थूल-स्थूल वस्तु, सचित्त % शिष्य प्रादि, अचित्त = वस्त्र पात्र श्रादि । उक्त छः प्रकार की वस्तुओं की न स्वयं मन से चोरी करे, न मन से चोरी कराए, न मन से अनुमोदन करे। ये मन के १८ भंग हुए । इसी प्रकार वचन के १८, और शरीर के १८, सब मिलकर ५४ भंग होते हैं । अचौर्य महाव्रत के साधक को उक्त सब भगों का दृढता से पालन करना होता है। ब्रह्मचर्य महात्रत ब्रह्मचर्य अपने आप में एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आदि सभी ब्रह्मचर्य पर निर्भर हैं। ब्रह्मचर्य वह श्राध्यात्मिक स्वास्थ्य है, जिसके द्वारा मानव-समाज पूर्ण सुख और शान्ति को प्राप्त होता है।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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