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________________ आवश्यक-दिग्दर्शन (६) धूर्त व्यापारी, जो वस्तुओं में मिलावट करते हैं, उचित मूल्य से ज्यादा दाम लेते हैं, और कम तोलते हैं । (७) घुसखोर न्यायाधीश तथा अन्य अधिकारी गण; जो वेतन पाते हुए भी अपने कर्तव्य-पालन में प्रमाद करते हैं और रिश्वत लेते हैं । . (८) लोभी वकील, जो केवल फीस के लोभ से झूठे मुकदमे लडाते हैं श्रौ जानते हुए भी निरपराध लोगों को दण्ड दिलाते हैं। (६) लोभी वैद्य, जो रोगी का, ध्यान न रखकर केवल फीस का लोभ रखते है और ठीक औषधि नहीं देते हैं। (१०) वे सब लोग, जो अन्याय पूर्वक किसी भी अनुचित रीति से, किसी व्यक्ति का धन, वस्तु, समय, श्रम और शक्ति का अपहरण एवं अपव्यय करते हैं। अहिंसा, सत्य एवं अचौर्य व्रत की साधना करने वालों को उक्त सब पाप व्यापारो से बचना है, अत्यन्त सावधानी से बचना है। जरासा भी यदि कहीं चोरों का छेद होगा तो आत्मा का पतन अवश्यंभावी है । जन-गृहस्थ भी इस प्रकार की चोरी से बचकर रहता है, और जैन-श्रमण तो पूर्णरूप से चोरी का त्यागी होता ही है। वह मन, वचन और कर्म से न स्वयं किसी प्रकार की चोरी करता है, न दूसरों से करवाता है, और न चोरी का अनुमोदन ही करता है । और तो क्या, वह दाँत कुरेदने के लिये तिनका भी विना अाज्ञा ग्रहण नहीं कर सकता है। यदि साधु कहीं जंगल मे हो, वहाँ तृण, कंकर, पत्थर अथवा • वृक्ष के नीचे छाया में बैठने और कहीं शौच जाने की आवश्यकता हो तो शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उसे इन्द्रदेव की ही श्राज्ञा लेनी होती है। अभिप्राय यह है कि विना अाज्ञा के कोई भी वस्तु न ग्रहण की जा सकती है और न उसका क्षणिक उपयोग ही किया जा सकता है। पाठक इसके लिए अत्युक्ति का भ्रम करते होगे। परन्तु साधक को इस रूप में व्रत पालन के लिए सतत जागृत रहने की स्फूर्ति मिलती
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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