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________________ श्रमण-धर्म .श्रावक-धर्म से आगे की कोटि साधु-धर्म की है। साधु-धर्म के लिए हमारे प्राचीन प्राचार्यों ने ,आकाश-यात्रा शब्द का प्रयोग किया है । अस्तु; यह साधु-धर्म की यात्रा साधारण यात्रा नही है । आकाश में उड़ कर चलना कुछ सहज बात है ? और वह आकाश भी कैसा ? संयम जीवन की पूर्ण पवित्रता का आकाश । इस जड़ आकाश मे तो मक्खी -मच्छर ,भी उड लेते हैं, परन्तु संयम-जीवन की, पूर्ण- पवित्रता के चैतन्य आकाश में उडने वाले विरले, ही कर्मवीर मिलते हैं। ... साधु होने के लिए केवल बाहर से वेष बदल लेना ही काफी नहीं है, यहाँ तो अन्दर से सारा जीवन ही बदलना पडता है, जीवन का समूचा लक्ष्य ही बदलना पडता है। यह मार्ग फूलों का नहीं, कॉटों का है । नंगे पैरों जलती आग पर चलने जैसा दृश्य है साधु-जीवन का ! उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में कहा है कि-'साधु होना, लोहे के जौ चबाना है, दहकती ज्वालाओं को पीना है, कपड़े के थैले कोहवा से भरना है, मेरु पर्वत को तराजू पर रखकर तौलना है, और महा समुद्र को भुजानो से तैरना है,। इतना ही नहीं, तलवार की नग्न धार पर नंगे पैरो चलना है।' वस्तुतः साधु-जीवन इतना ही उग्र जीवन है । वीर, धीर, गम्भीर, एवं साहसी साधक ही इस दुर्गम पथ पर चल सकते हैं-'चरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्कवयो वदन्ति ।' जो लोग कायर
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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