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________________ श्रावक-धर्म दान, परिग्रह का प्रायश्चित है। प्राप्त वस्तुओं का स्वार्थ बुद्धि से अकेला उपभोग करना, पाप है । गृहस्थ को उक्त पाप से बचना चाहिए। गृहस्थ के घर का द्वार जन-सेवा के लिए खुला रहना चाहिए । यदि कभी त्यागी साधु-संत पधारे तो भक्ति भाव के साथ उनको योग्य पाहार पानी अादि बहराना चाहिए और अपने को धन्य मानना चाहिए। यदि कभी अन्य कोई अतिथि आए तो उसका भी योग्य सत्कार सम्मान करना चाहिए । गृहस्थ के द्वार पर से यदि कोई व्यक्ति भूखा और निराश लौटता है तो यह समर्थं गृहस्थ के लिए पाप है। अतिथि संविभाग व्रत इसी पाप से बचने के लिए है! यह संक्षेप में जैनगृहस्थ की धर्म साधना का वर्णन है। अधिक विस्तार में जाने का यहाँ प्रसंग नहीं है, अतः संक्षिप्त रूप रेखा बता कर ही सन्तोष कर लिया गया है। धर्म के लिए वर्णन के बिस्तार की उतनी आवश्यकता भी नहीं है जितनी कि जीवन में उतारने की आवश्यकता है। धर्म जीवन में उतरने के बाद ही स्व-पर कल्याणकारी होता है । अतएव गृहस्थों का कर्तव्य है कि उक्त कल्याणकारी नियमों को जीवन में उतारें और अहिंसा एवं सत्य के प्रकाश में अपनी मुक्तियात्रा का पथ प्रशस्त बनाएँ।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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