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________________ श्रमण-धर्म हैं, साहसहीन हैं, वासनाओं के गुलाम हैं, इन्द्रियों के चक्कर में हैं, . और दिन-रात इच्छाओं की लहरों के थपेड़े खाते रहते हैं, वे भला क्यों कर इस तुर-धारा के दुर्गम पथ-पर चल सकते हैं ? , साधु-जीवन के लिए भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा है-"साधु को ममतारहित, निरहंकार, निःसंग, नम्र और प्राणिमात्र पर समभावयुक्त रहना चाहिए । लाम हो या हानि हो, सुख हो या दुःख हो, जीवन हो या मरण हो, निन्दा हो या प्रशंसा हो, मान हो या अपमान हो, सर्वत्र सम रहना ही साधुता है। सच्चा साधु न इस लोक में कुछ अासक्ति रखता है और न परलोक में। यदि कोई विरोधी तेज कुल्हाड़े से काटता है या कोई भक्त शीतल एवं सुगन्धित चन्दन का लेप लगाता है, साधु को दोनो पर एक जैसा ही समभाव रखना होता है। वह कैसा साधु, जो क्षण-क्षणमें राग-द्वष' की लहरों मे बह निकले । न भूख पर नियंत्रण रख सके और न भोजन पर निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्त गारवो। समो य सव्वभूएसु, ' , • . तसेसु · थावरेसु थे। लाभालाभे सुहे दुक्खे, . जीचिए मरणे सहाः। समो निंदा - पसंसास समो माणावमाणो॥ अणिस्सिो इहं लोए, . परलोए अणिस्सिओ।' . वासी - चंदणकप्पो य, .असणे अणसणे तहा ।। -उत्तरा० १६, ८६, ६०, ६२
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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