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________________ "५० श्रावश्यक-दिग्दर्शन अहिसा-साधना अधिकाधिक व्यापक होकर आत्म-तत्त्व अपनी स्वाभाविक . स्थिति में स्वच्छ हो जाए। ' ११-पौषध व्रत यह व्रत जीवन-संघर्ष की सीमा को और अधिक संक्षिप्त करता है। एक अहोरात्र अर्थात् रात-दिन के लिए सचित्त वस्तुओं का, शस्त्र का, पाप व्यापार का, भोजन-पान का तथा अब्रह्मचर्य का त्याग करना पौषध'व्रत है। पौषध की स्थिति साधुजीवन जैसी है। अतएव पौपध में कुरता, कमीज, कोट आदि गृहस्थोचित वस्त्र नहीं पहने जाते, पलंग आदि पर नहीं सोया जाता और स्नान भी नहीं किया जाता । सांसारिक प्रपंचो से सर्वथा अलग रह कर एकान्त मे स्वाध्याय, ध्यान तथा प्रात्म- ... चिन्तन आदि करते हुए जीवन को पवित्र बनाना ही इस व्रत का उद्देश्य है। १२-अतिथि-संविभाग व्रत । गृहस्थ जीवन मे सर्वथा परिग्रह-रहित नहीं हुआ जा सकता । यहाँ मन मे संग्रह बुद्धि बनी रहती है और तदनुसार संग्रह भी होता रहता है । परन्तु यदि उक्त संग्रह और परिग्रह का उपयोग अपने तक ही सीमित रहता है, जनकल्याण में प्रयुक्त नहीं होता है तो वह महाभयंकर पाप बन जाता है। प्रतिदिन बढ़ते हुए परिग्रह को बढ़े हुए नख की उपमा दी है । बढ़ा हुआ नाखून अपने या दूसरे - के शरीर पर जहाँ भी लगेगा, घाव ही करेगा। अतः बुद्धिमान् सभ्य मनुष्य का कर्तव्य हो जाता है कि वह बढे हुए नाखून को यथावसर काटता रहे । इसी प्रकार परिग्रह भी मर्यादा से अधिक बढ़ा हुआ अपने को तथा आस-पास के दूसरे साथियों को तंग ही करता है, अशान्ति ही बढ़ाता है। इसलिए जैन-धर्म परिग्रह-परिमाण में धर्म बताता है और उस परिमित परिग्रह में से भी नित्य प्रति दान देने का विधान करता है।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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