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________________ श्रावक धर्म । ४७ (५) प्रति दिन के व्यवहार में आने वाली पात्र, शयन, श्रासन श्रादि घर की अन्य वस्तुएं । ६-दिग्वत पापाचरण के लिए गमनागमनादि क्षेत्र को विस्तृत करना जैन 'गृहस्थ के लिए निषिद्ध है। बडे-बडे राजा सेनाएँ लेकर दिग्विजय को निकलते हैं और जिधर भी जाते हैं, सहार मचा देते हैं। बडे-बडे व्यापारी व्यापार करने के लिए चलते हैं और आस-पास के राष्ट्रो की गरीव प्रजा का शोषण कर डालते हैं। इसीलिए भगवान् महावीर ने दिग्वत का विधान किया है। दिव्रत में कर्मक्षेत्र की मर्यादा बॉधी जाती है अर्थात् सीमा निश्चित की जाती है । उस निश्चित सीमा के बाहर जाकर हिंसा, असत्य आदि पापाचरण का पूर्ण रूप से त्याग करना, दिग्नत का लक्ष्य है। ७-उपभोग परिभोग-परिमाण व्रत जीवन भोग से बॅग हुआ है । अतः जब तक जीवन है, भोग का सर्वथा त्याग तो नहीं किया जा सकता । हॉ, श्रासक्ति को कम करने के लिए भोग की मर्यादा अवश्य की जा सकती है। अनियंत्रित जीवन विषाक्त हो जाता है। वह न अपने लिए हितकर होता है और न जनता के लिए । न इस लोक के लिए श्रेयस्कर, होता है और न परलोक के लिए । अनियंत्रित भोगासक्ति संग्रह बुद्धि को उत्तेजित करती है। संग्रहबुद्धि परिग्रह का जाल बुनती है। परिग्रह का जाल ज्यों-ज्यों फैलता जाता है, त्यों-त्यों हिंसा, द्वेष, घृणा, असत्य, चौर्य आदि पापों की परम्परा लम्बी होती जाती है। अतएव श्रमण संस्कृति गृहस्थ के लिए भोगासक्ति कम करने और उसके लिए उपभोग परिभोग में आने वाले भोजन, पान, वस्त्र आदि पदार्थों के प्रकार एवं सख्या को मर्यादित करने का विधान करती है। यह मर्यादा एक-दो-तीन दिन आदि के रूप में सीमित काल तक या यावज्जीवन के लिए की जा सकती है । उक्त
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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