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________________ आवश्यक दिग्दर्शन कर सकता तो उसको यह प्रतिज्ञा तो लेनी ही चाहिए कि 'मै 'स्वपत्नी. सन्तोष के 'अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार का व्यभिचार न स्वयं करूँगा और न दूसरों से कराऊँगा। अपनी पत्नी के साथ भी अति संभोग नहीं करूँगा।' ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए निम्नलिखित कार्यों का त्याग आवश्यक है (१) किसी रखेल के साथ संभोग करना। (२) परस्त्री, अविवाहिता तथा वेश्या श्रादि के साथ संभोग करना । । (३) अप्राकृतिक संभोग करना। (४) दूसरो के विवाह-लग्न कराने में अमर्यादित भाग लेना। (५) कामभोग की तीव्र आसक्ति रखना, अति संभोग करना । ५-अपरिग्रह व्रत परिग्रह भी एक बहुत बड़ा पाप है। परिग्रह मानव-समाज की मनोभावना को- उत्तरोत्तर दूषित करता जाता है और किसी प्रकार का भी खपरहिताहित एवं लाभालाभ का विवेक नहीं रहने देता है । सामाजिक विषमता, संघर्ष, कलह एवं अशान्ति का प्रधान कारण परिग्रहवाद ही है । अतएव स्व और पर की शान्ति के लिए अमर्यादित स्वार्थवृत्ति एवं संग्रह बुद्धि पर नियंत्रण रखना आवश्यक है। - अपरिग्रह व्रत की प्रतिज्ञा के लिए निम्नलिखित वस्तुओं के अतिपरिग्रह-त्याग की उचित मर्यादा का निर्धारण करना चाहिए (१) मकान, दूकान और खेत आदि की भूमि । .' (२) सोना और चॉदी। - (३) नोकर चाकर तथा गाय, मैंस आदि द्विपद चतुष्पद । (४) मुद्रा,, जवाहिरात आदि धन और धान्य । १-स्त्री को स्वपति-सन्तोष' कहना चाहिए।
SR No.010715
Book TitleAavashyak Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1950
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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