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________________ [७३ करता है तो वह गिर जाता है और यदि उसके मन में प्रलोभन उत्पन्न नहीं होता और समभाव बना रहता है तो वह परीषह विजेता कहलाता है। . इस प्रकार संयम से च्युत करने वाले जितने भी प्रलोभन हैं, सब अनुकूल परीषह कहलाते हैं । प्रतिकूल परीषह इससे उलटे होते हैं । भूखप्यास की बाधा होने पर भी भोजन-पानी न मिलना, सर्दी-गर्मी का कष्ट होना, अपमान और तिरस्कार की परिस्थिति उत्पन्न हो जाना आदि जो अवांछनीय कष्ट आ पड़ता है, वह प्रतिकूल परीषह है। . अज्ञानी लोग अपनी प्रशंसा करने वाले को अभिनन्दन-पत्र प्रदान करने वाले को और दूसरे प्रलोभन देने वाले को अपना मित्र समझते हैं और अपमान करने वाले को तथा किसी दूसरे तरीके से कष्ट और संताप पहुंचाने वाले को शत्रु समझते हैं । वह एक पर राग और दूसरे पर द्वेष करके कर्म का बन्ध करता है । किन्तु ज्ञानी पुरुष दोनों पर समभाव रखता है। न किसी पर रोष, न किसी पर तोष । उसका समभाव अखंड रहता है । प्रश्न किया जा सकता है कि यदि साधु के वास्तविक गुणों की प्रशंसा करना उसके लिए अनुकूल परीषह है तो क्या प्रशंसा करना पाप है ? क्या साधु के गुणों की प्रशंसा नहीं करना चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पाप और पुण्य का सम्बन्ध कर्ता की भावना पर निर्भर है। साधु के उत्तम . संयम और उच्चकोटि के वैराग्य भाव को देखकर भव्य जीव के हृदय में प्रमोद भावना उत्पन्न होती है। प्रमोदभाव से प्रेरित होकर वह उन गुणों की स्तुति करता है । स्तुति सुनकर मुनि अभिमान करने लगे और अपने समभाव मे गिर जाएं, ऐसी कल्पना भी उसके हृदय को स्पर्श नहीं करती। वह उन गुणों की प्राप्ति की ही प्रकारान्तर से कामना करता है और अपने धर्म को पालन करता है। ऐसी स्थिति में प्रशंसा करना हेय नहीं है। हां, मुनि का कर्तव्य है कि वह अपने समभाव को स्थिर रक्खे और प्रशंसा सुनकर भी गर्व का अनुभव न करे, वरन् प्रशंसा के अवसर पर अपनी त्रुटियों का ही विचार करे। ऐसा करके मुनि अपने धर्म का पालन करता है। दोनों को अपने-अंपने धर्म का पालन करना चाहिए।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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