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________________ होती जाती है । वाह्य दौड़धूप को रोकना उतना कठिन नहीं है जितना अन्तर की भावना को सीमित करना कठिन है। ... भावना के क्षेत्र में अहंकार, मान, महिमा कामना को ऊर्ध्व दिशा कह सकते हैं, मोह, लोभ और तिरस्कार को अधोदिशा तथा काम को तिर्यक् दिशा कह सकते हैं । ज्ञानी चित्त के इन विकारों को सीमित करता-करता अन्ततः समूल नष्ट करने में समर्थ हो जाता है । कापुरुप (दुर्वल हृदय) के लिए अपनी भावनाओं का नियन्त्रण करना कठिन होता है । उसके चित्त में कामनाओं की जो चंचल हिलोरें उठतीं हैं, उन्हीं में वह वहता रहता है । उसको देहली भी डूंगरी जैसी लगती है । कहावत है 'देहली होगई डूंगरी, सौ कोसां भया वजार ।' जब शुद्ध ज्ञानादिक का वल क्षीण होता है तो छोटे-मोटे विकारों पर विजय पाना भी कठिन होता है । परन्तु साधक का कर्तव्य है कि वह ऊंची दिशा में मन के भावों को क्रान्त न होने दे और लोभादि से नीचे न गिरे । स्थूलभद्र की साधना इसीलिए दुष्करतम कहलाई। काम का शस्त्र मृदुल होता है फिर भी बड़ी गहरी मार करता है। परीषह के दो रूप होते हैं-अनुकूल परीषह और (२) प्रतिकूल परीषह । अनुकूल परीपह अर्थात् प्रलोभन । कोई साधक के सद्भूत अथवा असद्भूत गुणों की प्रशंसा करता है । साधक के लिए यह अनुकूल परीषह है । अपनी प्रशंसा सुनकर अगर वह गौरव का अनुभव नहीं करता, उसके मन में अभिमान नहीं .जगता और अखंड समभाव स्थिर रहता है तो वह परीषह विजेता है और यदि मन में अहंकार उत्पन्न हो जाता है तो समझना चाहिए कि वह परीषह से पराजित हो गया हैं....अपने पद से गिर गया है। साधु के समक्ष भोग-उपभोग की मनोज्ञ सामग्री प्रस्तुत की जाती है और उसे ग्रहण करने का अनुरोध किया जाता है तो यह भी अनुकूल परीषह् . है। अगर साधु उस सामग्री के प्रलोभन में आकर संयम की सीमा का उल्लंघन
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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