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________________ . [६५ उपयोग पर पाबंदी लगाकर आर्थिक वैषम्य को उत्पन्न नहीं होने देने की भी व्यवस्था करता है । अतएव अगर अपरिग्रह व्रत का व्यापक रूप में प्रचार और अंगीकार हो तो न अर्थ वैषम्य की समस्या विकराल रूप धारण करे, न वर्ग संघर्ष का अवसर उपस्थित हो और न उसके लिए विविध प्रकार के असफल वादों का आविष्कार करना पड़े। मगर आज की दुनिया धर्मशास्त्रों की बात सुनती कहां हैं ? यही कारण है कि संसार अशान्ति और संघर्ष की क्रीडाभूमि वना हुआ है और जब तक धर्म का प्राश्रय नहीं लिया जायगा तब तक इस विषम स्थिति का अन्त नहीं आएगा। देशविरति धर्म के साधक को अपनी की हुई मर्यादा से अधिक परिग्रह नहीं बढ़ाना चाहिए। उसे परिग्रह की मर्यादा भी ऐसी करनी चाहिए कि जिससे उसकी वृष्णा पर अंकुश लगे, लोभ में न्यूनता हो और दूसरे लोगों को कष्ट न पहुँचे। सर्वविरत साधक का जीवन तो और भी अधिक उच्चकोटि का होता है। वह आकर्षक शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श पर राग और अनिष्ट शब्द आदि पर द्वेष भी नहीं करेगा। इस प्रकार के आचरण से जीवन में निर्मलता बनी रहेगी। ऐसा साधनाशील व्यक्ति चाहे अकेला रहे या समूह में रहे, जंगल में रहे, या समाज में रहे, प्रत्येक स्थिति में अपना व्रत निर्मल बना सकेगा। . मुनि स्थूलभद्र वेश्या के भवन में, विलास और विकार के वातावरण में रहे । कुए की पाल पर साधना करने वाले मुनि भी जन समुदाय के बीच में हैं । नाग की बामी और सिंह की गुफा वाले मुनियों को जन सम्पर्क से दूर रहना है । कुँए की पाल पर साधना करने वाले मुनि पर कभी पानी भरने वाली महिलाएं पानी और कीचड़ उछाल देतों उनसे वाल्टी या डोंली टकरा देतीं। रात्रि में निद्रा से उन्हें बचना पड़ता है। कभी निद्रा का झोंका आ जाय. तो कुए में पड़ने का खतरा है । दिन के समय राग-द्वेष से अपनी आत्मा की रक्षा करनी है । इस प्रकार वे सतत अप्रमत्त अवस्था में रह कर अंचल समाधि में स्थित रहे। निरन्तर जागृत रहना; पल भर के लिए भी निद्रा न लेनां और राग-द्वेष पर विजय पाना कोई साधारण साधना नहीं है। प्रमाद पर विजय
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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