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________________ परिग्रह मर्यादा .. "प्राचारःप्रथमो धर्म" अर्थात् धर्म के अनेक क्रियात्मक रूप हैं किन्तु आचार सदाचार-सव धर्मों में प्रथम है। इस उक्ति के अनुसार जब भगवान् महावीर की वाणी का संकलन किया गया तो भगवान के द्वारा प्ररूपित आचार धर्म का ...: प्रथम अंग-प्राचारांग में संकलन हुआ। इस प्रकार प्रथम धर्म का प्रथम अंग में निरूपण किया जाना शास्त्रकारों की दूरदर्शिता और सूक्ष्म प्रज्ञा का परि... चायक है। आचारांग सूत्र में मुनिधर्म का हृदय ग्राही निरूपण है। उसमें भी प्रथम अध्ययन में पापःत्याग की प्ररूपणा की गई और हिंसा से होने वाले कुपरिणाम बतलाए गए हैं। मुनियों के समान प्रत्येक साधक को पूर्ण रूप से निष्पाप और त्यागमय जीवन बनाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए । त्यागमय जीवन यापन करने के लिए व्रतों को प्रतिज्ञा के रूप में अगीकार करना आवश्यक होता है। - कई लोग समझते हैं कि हम यों ही व्रत का पालन कर लेंगे, प्रतिज्ञा के बन्धन में बांधने की क्या आवश्यकता है ?, किन्तु इस प्रकार का विचार हृदय की दुर्बलता से प्रसूत होता है । जिसे व्रत का पालन करना ही है उसे प्रतिज्ञा से घबराने की क्या आवश्यकता है ? प्रतिज्ञा के बन्धन में न बँधने के विचार की पृष्ठभूमि में क्या उस व्रत की मर्यादा से बाहर चले जाने की दुर्बल वृत्ति नहीं है ? यदि संकल्प में कमी न हो तो व्रत के बन्धन से बचने की इच्छा ही न हो । स्मरण रखना चाहिए कि बन्धन वही कष्टकर होता है जो अनिच्छा से मनुष्य पर लादा जाता है । स्वेच्छा पूर्वक अंगीकार किया हुआ,
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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