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________________ ४४] आत्मीय भाव से स्वीकार करना परिग्रह है। परिग्रह के मुख्य मेद दो हैंआभ्यन्तर और वाह्य । रुपया-पैसा, महल-मकान आदि. बाह्य परिग्रह हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग. द्वेष, मोह अादि वैकारिक भाव प्राभ्यन्तर परिग्रह कहलाते हैं। श्रावक आनन्द ने इच्छा परिमाण वत अंगीकार किया और अन्यान्य पापों को भी घटा लिया। इच्छापरिमाण करने से अान्तरिक परिग्रह भी घट जाता है । वाह्य परिग्रह का तो कुछ नाप-तोल भी हो सकता है, जैसे जमीन और धन का प्रमाण किया जा सकता है किन्तु आन्तरिक परिग्रह का, जो बाह्य परिग्रह की अपेक्षा भी आत्मा का अधिक अहित करने वाला है और आत्मा को अधोगति में ले जाने वाला है, कोई नाप-तोल नहीं हो सकता। उसकी सीमा श्रावक के लिए यही है कि वह प्रत्याख्यान कषाय के रूप में रहेगा । गृहस्थ साधक का कर्तव्य है कि कदाचित् किसी के साथ वैर-विरोध उत्पन्न हो जाये तो उसे चार मास के भीतर-भीतर शमन कर ले । अगर चार मास से अधिक समय तक कोई कषाय विद्यमान रहता है तो वह अप्रत्याख्यान कषाय की कोटि में चला जाता है और अप्रत्याख्यान कषाय के सद्भाव में श्रावक के व्रत (देशविरति) ठहर नहीं सकते । अतएव जो श्रावक अपने क्तों की रक्षा करना चाहता है, उसे चार महीने से अधिक काल तक कषाय नहीं रहने देना चाहिए ! . - बाह्य परिग्रह में जमीन, खेत, मकान, चांदी-सोना, गाय, भैंस, घोड़ा, मोटर आदि समस्त पदार्थों का परिमारण करना चाहिए । परिमाण कर लेने से तृष्णा कम हो जाती है और व्याकुलता मिट जाती है। जीवन में हल्कापन आ जाता है और एक प्रकार की तृप्ति का अनुभव होने लगता है। आखिर शान्ति तो सन्तोष से ही प्राप्त हो सकती है। सन्तोष हृदय में नहीं जागा तो सारे विश्व की भूमि, सम्पत्ति और अन्य सुख सामग्री के मिल जाने पर भी मनुष्य शान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। मन की भूख मिटाने का एक मात्र उपाय सन्तोष है. इच्छा को नियंत्रित कर लेना है। पेट की भूख तो पाव-दो पाव आटे से मिट जाती है मगर मन की भूख तीन लोक के राज्य से भी नहीं मिटती। ..कहा भी है. गोधन, गजधन, रत्नधन, कंचन खान सुखान ।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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