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________________ प्रारम्भ में एक कामना उत्पन्न होती है। उसकी पूर्ति के लिए मनुष्य प्रयत्न करता है वह पूरी भी नहीं होने पाती कि अन्य अनेक कामनाएं उत्पन्न हो जाती हैं। इस प्रकार ज्यों-ज्यों कामनाओं को पूर्ण करने का प्रयास किया जाता है त्यों-त्यों उनकी वृद्धि होती जाती है और तृप्ति कहीं हो ही नहीं पाती 'पागम में कहा है 'इच्छा हु आगास समा अणंतिया ।' उत्त० — जैसे आकाश का कहीं अन्त नहीं वैसे ही इच्छाओं का भी कहीं अन्त नहीं । जहां एक इच्छा की पूर्ति में से ही सहस्रों नवीन इच्छाओं का जन्म हो जाता हो वहां उनका अन्त किस प्रकार आ सकता है ? अपनी परछाई को. पकड़ने का प्रयास जैसे सफल नहीं हो सकता, उसी प्रकार कामनाओं की पूर्ति . करना भी संभव नहीं हो सकता । उससे बढ़ कर अभागा और कौन है जो प्राप्त सुख सामग्री का सन्तोष के साथ उपभोग न करके तृष्णा के वशीभूत होकर हाय-हाय करता रहता है, आकुल-व्याकुल रहता है, धन के पीछे रात-:दिन भटकता रहता है, जिसने धन के लिए अपना मूल्यवान मानव जीवन अर्पित कर दिया वह मनुष्य होकर भी मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। पारलौकिक श्रेयस् और सुख की बात जाने भी दी जाय और सिर्फ वर्तमान जीवन की सुख-शान्ति की दृष्टि से ही विचार किया जाय तो भी इच्छाओं को नियंत्रित करना अनिवार्य प्रतीत होगा। जब तक मनुष्य इच्छाओं को सीमित नहीं कर लेता तब तक वह शान्ति नहीं पा सकता और जब तक 'चित्त में शान्ति नहीं तब तक सुख की. संभावना ही कैसे की जा सकती है ? : - यही कारण है कि इच्छा परिमाण श्रावक के मूल वत्तों में परिगणित किया गया है । इच्छा का परिमाण नहीं किया जाएगा और कामना बढ़ती रहेगी तो प्राणातिपात और झूठ बढ़ेगा। अदत्त ग्रहण में भी प्रवृत्ति होगी। कुशील को बढ़ाने में भी परिग्रह कारणभूत होगा। इस प्रकार असीमित इच्छा . सभी पापों और अनेक अनर्थों का कारण है। .......... .. . जो पदार्थ यथार्थ में आत्मा का नहीं है, आत्मा से भिन्न है, उसे ..
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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