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________________ ४२] गहराई नहीं है, आसक्ति कम है वहां बाह्य पदार्थों की प्रचुरता में भी महापरि ग्रह नहीं होता। . व्यवहारिक दृष्टि से अानन्द के यहां महारंभ था। उसका बड़ा कारवार था, किन्तु बाहर का रूप बढ़ा-चढ़ा होने पर भी जहां दृष्टि में सम्यक्त्व और विरतिभाव आ जाता है, वहाँ प्रारंभ का दोष बढ़ा-चढ़ा नही होता। सम्यग्दृष्टि जीवमें दर्शन मोहनीय का उदय न होने से तथा चरित्रमोहनीय को भी तीव्रतम शक्ति ( अनन्तानुबंधी कषाय ) का उदय न रहने से मूर्छा-ममता में उतनी सबनता नहीं होती जितनी मिथ्यादृष्टि में होती है । जहाँ सुदृष्टि आ जाती है वहाँ श्रारंभ विषयक दृष्टि भी सम्यक् हो जाती है। जहां सुदृष्टि नहीं होती वहाँ अंधाधुंध प्रारंभ होता है। - गृहस्थ के लिये प्रारभं केसाथ परिग्रह का परिमाण करना भी अावश्यक माना गया है, हिंसा, असत्य चोरी और कुशील का घटना तब संभव होता है जब परिग्रह पर नियंत्रण रहे । जब तक परिग्रह पर नियंत्रण नहीं किया जाता और उसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जाती तब तक हिंसा आदि पापों का घटना प्रायः असंभव है। - सर्वथा परिग्रह विरमण (त्याग) और परिग्रह परिमाण, ये इस व्रत के दो रूप हैं । परिग्रह परिमाण व्रत का दूसरा नाम इच्छा परिमाण है । कामना अधिक होगी तो प्राणातिपात और असत्य भी बढ़ेगा। सब अनर्थों का मूल कामना लालसा है । कामना ही समस्त दुःखों को उत्पन्न करती है । भगवान् ने कहा है-'कामे कमा ही कमियं' खु दुक्खं' । यह छोटा-सा सूत्र वाक्य दुःख के विनाश का अमोघ उपाय हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । जो कामनाओं को त्याग देता है वह समस्त दुःखों से छुटकारा पा लेता है। ... . साधारण मनुष्य कामनापूर्ति में ही संलग्न रहता है और उसी में अपने जवीन को खपा देता है । विविध प्रकार की कामनाएँ मानव के मस्तिष्क में उत्पन्न होती है और वे उसे नाना प्रकार से नचाती हैं। इस संबंध में सबसे बड़ी कठिनाई तो यह है कि कामना का कहीं ओर-छोर नहीं दिखाई देता।
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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