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________________ करना चाहिए कि जिससे आत्मा की ज्ञान-सुख स्वरूप शक्तियां सर्वथा प्रकट हो । जाएं, जागृत हो जाएं और आत्मा में तेज प्रस्फुटित हो जाए। साधना के द्वारा कर्म के आवरण को दूर करना चाहिए । आवरण हटते ही आत्मा का नैसर्गिक तेज उसी प्रकार प्रकट हो जाता है जैसे मेघों के हटने पर सूर्य अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाता है। . . . . सूर्य कितनी ही सघन मेघमाला से मंडित क्यों न हो, उसकी किरणों की सहज उज्ज्वलता में अन्तर नहीं पड़ता। मेघों के आवरण से ऐसा मालूम पड़ता है कि सूर्य की किरणों की तेजस्विता कम हो गई है, किन्तु यह भ्रम है । इसी प्रकार आत्मा में कोटि-कोटि सूर्यों से भी अधिक जो तेज है, वह कम नहीं हो सकता, सिर्फ प्रावृत होता है । सहज रूप से निर्मल श्रात्मा में कोई धब्बा नहीं लगता। फिर भी बाह्य आवरण को चीर कर अन्तरतर को न देख सकने के कारण हस ऐसा अनुभव करते हैं कि आत्मा में मलीनता है । वास्तव में यह हमारा भ्रम है, अज्ञान है ।। .... पुद्गल एवं पौद्गलिक पदार्थों की ओर जितनी अधिक आसक्ति. ___ एवं रति होगी, उतना ही आन्तरिक शक्ति का मान कम होगा। .. . . . पाप आचरण के मुख्य दो कारण हैं । कुछ पाप परिग्रह के लिए और कुछ प्रारंभ के लिए किये जाते हैं । कुछ पापों में परिग्रह प्रेरक बनता है। परिग्रह प्रारंभ का वर्द्धक है । अगर परिग्रह अल्प है और उसके प्रति आसक्ति अल्प है तो उसके लिए आरंभ भी अल्प होगा। इसके विपरीत यदि परिग्रह बढ़ा और अमर्याद हो गया तो आरंभ को भी बढ़ा देगा-वह प्रारंभ महारंभ होगा। . . . . . . . . . . . . . . आन्तरिक दृष्टि से अल्यारंभ और महारंभ तथा अल्पपाप और महापाप और ही ढंग से माना गया है। बाह्य दृष्टि से तो ऐसा लगता है कि बड़े कुटुम्ब वाले का प्रारंभ महारंभ है, ग्रामपति का आरंभ और भी बड़ा है तथा चक्रवर्ती राजा के महारंभ का तो पूछना हो क्या ! किन्तु एकान्ततः ऐसा समझना समीचीन नहीं हैं। जहां सम्यक् दृष्टि है, कषाय की तीव्रता नहीं है, मूर्छा-ममता में
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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