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________________ __ ४०] आवरण से मलीन हो रहा है । उसकी अनन्त-अनन्त शक्तियां कुठित हो रही हैं । उसके भीतर अमित गुणों का जो खजाना भरा पड़ा है, वह उसको पहचानने में भी असमर्थ हो रहा है। आत्मा में अनन्त, असीम, अव्याबाध आनन्द का समुद्र लहरा रहा है, किन्तु उसे अात्मा मूढ़ वनकर पहचानता भी नहीं है । जब पहचानता ही नहीं तो कैसे उसमें अवगाहन कर सकता है ? और कैसे उसे प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है ? आत्मिक आनन्द से वंचित होने के कारण ही उसे विषय-जनित आनन्द को अनुभव करने की कामना उत्पन्न होती है। वह पौद्गलिक पदार्थों से सुख पाने की इच्छा करता है । मगर सुख प्रद्गल का धर्म नहीं है । प्रद्गल के निमित्त से अनुभव में आने वाला सुख भी वास्तव में आत्मा का ही है-आत्मा के सुख-गुण. का विकार है। कुत्ता हड्डी चूसता है । हड्डी की रगड़ लगने से उसकी दाढ़ों में से रुधिर बहने लगता है, मगर वह भ्रमवश समझता है कि यह रुधिर हड्डी में से प्राप्त हो रहा है। अज्ञानी जीव भी इसी प्रकार के भ्रम में रहता है । वह आत्मा के सुख को पुद्गलों से प्राप्त होने वाला सुख मान कर उनका संग्रह करने को अभिलाषा करता है, मगर अन्ततः पुद्गलों के संयोग से उसे दुःख की. ही प्राप्ति होती है और विविध प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करना पड़ता है । इसी से भव परम्परा चालू रहती है । यह भ्रम ही सब अनर्थों की जड़ है। वह आत्मिक सम्पत्ति से वंचित होने के कारण ही पुद्गलों के प्रति रति धारण करता है। अनेक जीव ऐसे हैं जो आत्मा और आत्मिक सम्पत्ति पर विश्वास ही नहीं करते । उनमें जो सरल हैं, भोले हैं, वे कदाचित् सन्मार्ग पर आ सकते हैं परन्तु जो आग्रह शील हैं, उन्हें सुमार्ग पर लाना संभव नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आत्मा में अनन्त ज्ञान की निधि, आनन्द की सम्पदा और चैतन्य के चमत्कार का वर्णन सुनकर आनन्द विभोर हो जाते हैं मगर वे उसे प्राप्त करने के लिए कर कुछ भी नहीं पाते। .. तो जिसे जिनेन्द्र प्ररूपित तत्व का बोध प्राप्त है। उसको ऐसा प्रयत्न
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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