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________________ ३८०] ___ धर्म शास्त्र शिक्षा देता है कि जिन वस्तुओं के लिए तू लड़ता है और इसरों का अधिकार छीनता है, वे सारी वस्तुएं नाशवान हैं । जो आज तेरे : हाथ में है, उसका ही पता नहीं तो बलपूर्वक छीनी हुई परायी वस्तु कहां तक स्थायी रह सकेगी ? जो दूसरे को सताएगा वह हत्यारा कहलाएगा और सदा । भय से पीड़ित रहेगा ! उसके चित्त में सदेव धुकधुक रहेगी कि दुश्मन मुझ पर कहीं हमला न कर दे ! कोई नया. क्षत्रु पैदा न हो जाय ! वह लड़कर और लड़ाई में विजयी होकर भी शान्ति से नहीं रह सकता। एक शत्रु को समाप्त करने के प्रयत्न में वह सैकड़ों नवीन शत्रु खड़े कर लेगा । न चैन से रह सकेगा। और न दूसरों को चैन से रहने देगा। शत्रुता ऐसी पिशाचिनी है जो मर-मर . कर जीवित होती रहती है और जिसका मूलोच्छेद कभी नहीं होता। इस कारण धर्मशास्त्र कहता है कि शान्ति और सुख का मार्ग यह नहीं कि किसी को शत्रु समझो और उसको समाप्त करने का प्रयत्न करो; सच्चा मार्ग यह है कि अपने मैत्री भाव का विकास करो और इतना विकास करो कि कोई भी प्राण वारी ..। उसके दायरे से बाहर न रह जाय । किसी को शत्रु न समझो और न दूसरों को - : ऐसा अवसर दो कि वे तुम्हें अपना शत्रु समझें । . जो बात व्यक्तियों के लिए है वही देशों के लिए भी समझना चाहिए। विस्मय का विषय है कि ग्राज के युग में भी एक देश के सूत्रधार दूसरे देश के साथ युद्ध करने को तत्पर हो रहें है। पराधीन देश आज स्वाधीन होते जा रहे हैंसदियों की राजनितिज्ञ गुलामी खत्म हो रही है और साम्राज्यवाद अपनी अन्तिम घड़ियां गिन रहा है। ऐसी स्थिति में क्या संभव है. कि कोई देश किसी देश की स्वाधीनता को समाप्त कर उस पर अधिक समय तक अपना प्रभुत्व कायम रख लेगा ? आज का युद्ध कितना महंगा पड़ता है, यह किसी से छिपा नहीं है । पूर्वकाल में सीमित तरीके से युद्ध होता था। उसमें सेना ही सेना के साथ लड़ती थी और उस लड़ाई में भी कतिपय सर्वसम्मत नियम होते थे। सर्वनाश के प्राज जैसे
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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