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________________ विष से अमृत 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' अर्थात् मंगलमय कार्यों में अनेक विघ्न आया करते हैं। इस उक्ति के अनुसार साधना में भी अनेक बाधाओं का आना स्वाभाविक है, क्योंकि आध्यात्मिक साधना महान् मंगलकारी है, बल्कि कहना चाहिए कि संसार में श्रात्मसाधना से बढ़ कर या उसके बराबर मांगलिक कार्य दूसरा नहीं है । जो साधक प्रवल वैराग्य और सुदृढ़ साहस के साथ इस क्षेत्र में अग्रसर होते हैं वे अनुकूल और प्रतिकूल बाधाओं के आने पर भी विचलित नहीं होते । बाधाएं उन्हें पराजित नहीं कर सकतीं। वे अप्रमत्त भाव से जागरण की स्थिति में रहते हैं और आने वाली बाधाओं को अपने अात्मिक सामर्थ्य के प्रकट होने में सहायक समझते हैं। आने वाली प्रत्येक विघ्नवाधा उनकी साधना को आगे ही बढ़ाती है । ___ शास्त्रों का पारायण कीजिए तो विदित होगा कि घोर से घोर संकट ग्राने पर भी सच्चे साधक सन्त अपने पथ से चलायमान नहीं हुए, बल्कि उस संकट की आग में तप कर वे और अधिक उज्ज्वल हो गए। जिस कष्ट की कल्पना मात्र ही साधारण मनुष्य के हृदय को थर्रा देती है, उस कष्ट को वे सहज भाव से सहन कर सके । आखिर इस अद्भुत साहस और धैर्य का रहस्य क्या है ? किस प्रकार उनमें ऐसी दृढ़ता आ सकी ? इसके अनेक कारण हैं। उनके विवेचन का यहां अवकाश नहीं तथापि इतना कह देना आवश्यक है कि आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र का साधक-योगी इस तथ्य को भलीभांति समझता है कि आत्मा और देह एक नहीं है। यों जानने को तो आप भी जानते हैं कि : दोनों में भेद है किन्तु योगी जनों का जानना उनकी जीती-जागती अनुभूति
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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