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________________ [३०७ बन जाती है । इस अनुभूति के कारण वे आत्मा को देह से पृथक् अनन्त आनन्दमय चिन्मय तत्त्व समझते हैं और दैहिक कष्टों को आत्मा के कष्ट नहीं समझते । दैहिक अध्यास से अतीत हो जाने के कारण वे देह में स्थित होते हुए भी देहातीत अवस्था का अनुभव करते हैं। ... इस दशा में पहुँचना और निरन्तर इसी अनुभूति में रमण करना आसान नहीं है। इसके लिए दीर्घकालीन अभ्यास की आवश्यकता है। वह अभ्यास .... वर्तमान जीवन का भी हो सकता है और पूर्वभवों का संचित भी हो सकता .. -- है । गजसुकुमार मुनि ने भीषणतम उपसर्ग सहन करने में जो विस्मयजनक : दृढ़ता प्रदर्शित की, वह उनके पूर्वाजित संस्कारों का ही परिणाम कहा जा - सकता है । प्रत्येक प्रास्तिक इस तथ्य को स्वीकार करता है कि किसी भी जीव ' का जब जन्म होता है तो वह जन्म-जन्मातरों के संस्कार साथ लेकर ही.. जन्मता है । आत्मा की जो यात्रा अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए जारी है, एक-एक जन्म उसका एक-एक पड़ाव ही समझना चाहिए। - इन्हीं सब तथ्यों को सन्मुख रख कर महापुरुषों ने आचार-शास्त्र की : योजना की है । पोषधोपवास भी इसी योजना की एक कही है। परिमितकालीन पोषधोपवास की साधना भी आत्मा के पूर्वोक्त संस्कार को सबल बनाती है .... और देहाध्यास ऊपर उठाने में सहायक होती है । इस प्रकार प्रात्मा के गुणों को पुष्ट करने वाले सभी साधन पोषध हैं। - भगवान् महावीर ने पोषधोपवास के पांच अतिचार आनन्द को बतलाए और उनसे बचते रह कर साधना करने की प्रतिज्ञा की। ..... .. यह सत्य है कि आत्मा शरीर से पृथक् है, मगर यह भी असत्य नहीं कि : आत्मा जब तक अपने असली रूप में न आ जावे तब तक शरीर के साथ ही, :.' बल्कि उसके सहारे ही रहता है और शरीर का आधार अन्न-पानी है । 'अन्न .. :: वै प्राणाः' अर्थात् अन्न ही प्राण हैं---अन्न के अभाव में जीवन लम्बे समय तक : . ... कायम नहीं रह सकता। कोई भी जीवधारी संदां अन्न के बिना काम नहीं चला..
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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