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________________ १३२ ] नेपाल की दुर्गम घाटियों को पार करके वे नेपाल की राजधानी तक पहुंच गए । त्यागी श्रोर तपस्वी मुनि के श्रागमन को देख नेपाल- नरेश ने अपने को सौभाग्यशाली मान कर उनका सन्मान किया । माना कि घर बैठे गंगा श्रा गई है, प्रांगण में कल्पवृक्ष उग आया है । सुनि अर्धनग्न स्थिति में वहाँ पहुँचे, अतएव उनके प्रति राजा का श्रादरभाव अधिक जागा । नेपाल नरेश ने शिष्टाचार का अनुसरण करते हुए कहा - भगवन् ! प्रदेश दीजिए श्रापकी क्या सेवा की जाए ? मुनिजी 'सोsहम्' का नहीं प्रत्युत रत्नकंबल का जप करते हुए वहाँ पहुँचे थे, प्रतएव राजा के कहने पर उन्होंने रत्नकंबल की ही मांग की । रत्न कंबल इधर-उधर लुटाये जा रहे थे, तो मुनि की मांग की पूर्ति करना क्या बड़ी बात थी ? एक सुन्दर रत्न जटित कंबल लाकर राजपुरुष ने मुनि को अर्पित किया । मुनि के सन्तोष और उल्लास का पार न रहा । तपश्चरण से जन्म-जन्मान्तर में सिद्धि प्राप्त होती है परन्तु इन मुनि को अपने तप की सिद्धि तत्काल प्राप्त हो गई। मुनि रत्नकंबल पा कर मानो कृतार्थ हो गए । अत्यन्त प्रसन्नता के साथ वे तुरन्त पाटलीपुत्र लौटने लगे । भगवान् का प्रीतिभाजन बनने के लिए आत्मबल चाहिए। देवी और दानवी बाधाओं से न डरने वाले दृढ़ संकल्प भक्त पर भगवान् प्रसन्न होते हैं । कमजोरों पर वे भी प्रसन्न नहीं होते । मुनि को रत्न कंबल क्या मिला मानो अपनी समग्र साधना का अभीष्ट फल मिल गया । बड़े जतन से उसे संभाले वे पाटलीपुत्र की ओर तेजी से बढ़ रहे थे । होनहार टाले नहीं टलती । मनुष्य क्या सोचता है और क्या हो जाता है ? भवितव्यता के आगे समस्त मनोरथ एक चोर धरे रह जाते हैं । मुनि तेज विहार करते हुए चले जा रहे थे कि मार्ग में लुटेरों से भेंट हो गई। उन्होंने रास्ता रोक कर कड़कते स्वर में पूछा- क्या है तुम्हारे पास ? अपरिग्रही मुनि को चोरों और लुटेरों से सिंह गुफावासी मुनि इस समय अपनी मर्यादा का कोई भय नहीं होता, किन्तु उल्लंघन कर चुके थे । उनके
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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