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________________ [ १३३ पास रत्नकंबल के रूप में परिग्रह था । अतएव लुटेरों को सामने देख कर उनका हृदय धड़कने लगा। पहली बार उन्हें आभास हुआ कि परिग्रह किस प्रकार भय एवं मानसिक क्लेश को उत्पन्न करता है ! सिंह के भय को वीरतापूर्वक जीत लेने वाला मुनि रत्नकंबल छिन जाने के भय से कातर हो उठा। क्षण भर के लिए उनके मन में तीव्र ग्लानि उपजी और उन्होंने दबे स्वर में कहामैं तो साधु हूँ। मगर चोर और लुटेरे साधु-असाधु में भेद नहीं करते। इस सम्बन्ध में वे समभावी होते हैं। जिसके पास मूल्यवान वस्तु हो वे सभी उनके लिए समान हैं। लुटेरों ने रत्न-कंवन छीन लिया। उस समय मुनि के मन में कैसे-कैसे विचार उत्पन्न हुए होंगे, यह तो भुक्त भोगी ही समझ सकता है । मुनि को ऐसा लगा जैसे उनका सर्वस्व छिन गया हो। संसार चक्र अत्यन्त विषम है। यहां क्या अच्छा और क्या बुरा, यही २- निर्णय करना कठिन है । एक स्थिति में जो वस्तु सुख का कारण होती है, दूसरी स्थिति में वही दुःख का कारण सिद्ध होती है। जिन पुद्गलमय पदार्थों को आप चोटी से एड़ी तक पसीना बहा कर प्राप्त करते हैं, बड़े जतन से प्राणों के समान जिन की रक्षा करते हैं, वही जब चले जाते हैं तो मनुष्य की क्या दशा होती है ? और पौद्गलिक पदार्थ सदा कब ठहरने वाले हैं ? वे तो जाने के लिए ही आते हैं। फिर भी खेद का विषय है कि मूढ़ मानव उन्हीं के पीछे अपना जीवन नष्ट कर देता है और उनके मोह में फंस कर धर्म और नीति को विसर जाता है । किसी ने यथार्थ ही कहा है न जाने संसारे किममृतमयं किं विषमयम् ? इस संसार में क्या अमृत और क्या विष है, यह निर्णय करना ही कठिन है ! जिसे लोग अमृत समझ कर ग्रहण करते हैं, वह अन्त में विष साबित होता है और जिसे विष समझ कर त्यागते हैं वही अमृत प्रमाणित होता है ! ज्ञानी पुरुष भोगोपभोग की सामग्री को किपाक फल के समान कहते हैं तो अज्ञानी उसे सुधा समझते हैं !
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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