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________________ कर्मदान . [३] अध्यात्म के क्षेत्र में शुद्ध आत्मस्वरूप की उपलब्धि ही सिद्धि मानी गई है और उस सिद्धि को प्राप्त करना ही प्रत्येक साधक का चरम लक्ष्य है । जल तभी तक ढुलकता, ठोकरें खाता, ऊँचे-नीचे स्थानों में पददलित होता और चट्टानों से टकराता है, जब तक महासागर में नहीं मिल जाता । नदी-नाले के जल की यह सब मुसीबतें समुद्र मे मिल जाने के पश्चात् समाप्त हो जाती हैं। साधक के विषय में भी यही बात है। उसे भी ऊँची-नीची अनेक भूमिकाओं में से गुजरना पड़ता है, अनेकानेक परीषहों और उपसर्गों की चट्टानों से टक राना पड़ता है और ठोकरें खानी पड़ती हैं। किन्तु जब वह सिद्धि रूपी महासा. . गर में पहुँच जाता है तो उसका भटकना, ठोकरें खाना और टकराना सदा के लिए समाप्त हो जाता है । उसे शाश्वत और अविचल स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। समुद्र में प्रवेश करने के पश्चात् भी जल वाष्प बनने पर रूपान्तर को प्राप्त करता है किन्तु सिद्धि प्राप्त होने पर साधक को किसी रूपान्तर-पर्यायान्तर को प्राप्त नहीं करना पड़ता। चरम सिद्धि के अनन्तर न तो किसी प्रकार की प्रसिद्धि की संभावना रहती है और न उससे बढ़कर कोई सिद्धि है जिससे प्राप्त करने का प्रयत्न करना आवश्यक हो । ____ जो साधना करता है और साधना के हेतु ही अपनी समस्त शक्तियाँ समर्पित कर देता है, उसी को सिद्धि प्राप्त होती है। साधना करने वाला साधक कहलाता है । साधारणतया साधनाएं अनेक प्रकार की होती हैं अर्थ साधना, कामसाधना, धर्मसाधना आदि। अर्थ या काम की साधना का
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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