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________________ १२४] आत्मोत्कर्ष के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । वह साधना वाह्य साधना है और यदि उसमें सफलता मिल जाय तो प्रात्मा का अधःपतन भले हो, उत्थान तो नहीं ही होता। ऐसी साधनाएं. इस प्रात्मा ने अनन्त-अनन्त वार की हैं, मगर उनसे कोई समस्या सुलझी नहीं । इन साधनाओं में सिद्धि प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी घोर असिद्धि का सामना करना पड़ता है। किन्तु धर्मसाधना (प्रात्मसाधना) से प्राप्त होने वाली सिद्धि शाश्वत सिद्धि है। यह सिद्धि प्रात्मा के अनन्त और अक्षय वैभव-कोष को सदा के लिए उन्मुक्त कर देती है और अव्याबाध सुख की प्राप्ति का कारण होती है। हम अपनी पोर स्वयं दृष्टिपात करें और सोचें कि हमारे जीवन में कौन-सी साधना चल रही है ? हम अर्थ और काम की साधना में व्यग्र हैं अथवा धर्म की साधना कर रहे हैं ? स्मरण रखना चाहिए कि अर्थ और काम की साधना छूटे बिना धर्मसाधना संभव नहीं है। दोनों परस्पर विरोधी हैं । जहां धर्म साधन की प्रधानता होगी वहां अर्थ और काम की साधना गौण या लंगड़ी हो कर ही रह सकती है । अर्थ-काम साधना का भाव वहाँ महत्व का नहीं रहेगा, क्योंकि वहाँ दृष्टिकोण प्रात्मा की शुद्धि और निज-गुण वृद्धि का रहेगा। ... जीवन में एक ऐसी स्थिति भी होती है जहां मनुष्य धर्म, अर्थ और काम की साधना करता है । गृहस्थ जीवन में ऐसी स्थिति है। किन्तु विवेक शील गृहस्थ इनका सेवन इस ढंग से करता है कि धर्म, अर्थ और काम में से कोई किसी का विरोधी न बने। इन तीनों के परस्पर अविरोधी सेवन से गृहस्थ जीवन में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं होती, प्रत्युत वह अत्यन्त श्रेष्ठ बनता है । सद् गृहस्थ अर्थ और काम का सेवन धर्म का घात करके नहीं करेगा और धर्म का सेवन अर्थ और काम का नियामक होता है पर विघातक नहीं होगा । अर्थ और काम का सेवन भी उसका अविरुद्ध होगा । तात्पर्य यह है कि गृहस्थ जब तक गार्हास्थिक उत्तरदायित्व को वहन करके चल रहा है तब तक वह धर्म का बहाना करके अपने सामाजिक या पारिवारिक कर्तव्यों से विमुख नहीं होगा और श्रावक के योग्य धर्मसाधना का भी परित्याग नहीं
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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