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________________ 586 आध्यात्मिक आलोक अनुकरणीय बन गया । उसने अपने जीवन के साथ अपनी पत्नी के जीवन को भी संयम के मार्ग पर चलाया । व्रत ग्रहण कर घर लौटते ही अपनी पत्नी को व्रतग्रहण की प्रेरणा की । पत्नी ने भी भगवान के चरणों में उपस्थित होकर श्राविका के योग्य व्रतों को अंगीकार किया। इस प्रकार पति और पत्नी दोनों अनुरूप हो गए । पति और पत्नी के विचार एवं आचार में जब समानता होती है तभी गृहस्थी स्वर्ग बनती है और परिवार में पारस्परिक प्रीति एवं सद्भावना रहती है । जिस घर में पति-पत्नी के आचार-विचार में विरूपता-विसदृशता होती है, वहाँ से शान्ति और सुख किनारा काट कर दूर हो जाते हैं। पत्नी-पति का आधा अंग कही गई है, इसका तात्पर्य यही है कि दोनों का व्यक्तित्व पृथक्-पृथक् प्रकार का न होकर एकरूप होना चाहिए । दोनों में एक-दूसरे के लिए समर्पण (स्व-अर्पण) का भाव होना चाहिए। जैसे आदर्श पत्नी स्वयं कष्ट झेल कर भी अपने पति को सुखी बनाने का प्रयत्न करती है, उसी प्रकार पति को भी पत्नी के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए । दोनों में से कोई एक यदि श्रावकधर्म से विमुख होता हो तो दूसरे को चाहिए कि वह प्रत्येक संभव और समुचित उपाय से उसे धर्मोन्मुख बनावे । । महारानी चेलना ने किस प्रकार धर्म में दृढ़ रह कर सम्राट श्रेणिक को धर्मनिष्ठ बनाने का प्रयास किया था, यह बात आप जानते होगे । आनन्द दूरदर्शी गृहस्थ था । उसने सोचा कि घर में विषमता होने से शान्ति प्राप्त न होगी । अतएव उसने अपनी पत्नी शिवानन्दा से कहा-"मैंने बारह व्रत . अंगीकार किये हैं, देवानुप्रिये । त भी प्रभु के चरणों में जाकर व्रत अंगीकार कर ले।" शिवानन्दा ने अतीव हर्ष और उल्लास के साथ व्रत स्वीकार कर लिये ।। भगवान महावीर स्वामी के सप्तम पट्टधर आचार्य श्री स्थूलभद्र ने महामुनि भद्रबाहु से दस पूर्वो का ज्ञान अर्थसहित और अन्तिम चार पूर्वो का ज्ञान सूत्र रूप में प्राप्त किया । भद्रबाहु के पश्चात् स्थूलभद्र ने कौशलपूर्वक शासनसूत्र संभाला | उस काल तक वीरसंघ में किसी प्रकार का शाखाभेद नहीं हुआ था । वह अखंड रूप.में चल रहा था । श्वेताम्बर, दिगम्बर आदि भेद बाद में हुए । स्थूलभद्र के आचार्यत्व काल के ४४ वें वर्ष वीर नि. सं. २१४ में आषाढाचार्य के शिष्य अव्यक्तवादी निन्हव हुए। आपाढाचार्य का अन्तिम समय सन्निकट आया । उनके शरीर में प्रबल वेदना उत्पन्न हुई और उनकी जीवनलीला समाप्त हो गई । वे अपने शिष्यों को जो वाचना दे रहे थे, वह पूर्ण नहीं हो पाई थी, अतएव धर्मस्नेह के कारण स्वर्ग से आकर वे. अपने नृतक शरीर में पुनः अधिष्ठित हो गए । प्रातःकाल शिष्यों को जगाकर वाचना
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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