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________________ आध्यात्मिक आलोक 587 पूरी की । अन्त में उन्होंने इस रहस्य को प्रकट कर दिया । बतलाया कि "मैं शरीर त्याग कर स्वर्ग चला गया था और पुनः इस शरीर में अधिष्ठित हो गया हूँ।' इस प्रकार गुरु के रूप में देवता ने काम किया । शिष्यों ने उनके शरीर को त्याग दिया । मगर इस घटना ने विषम रूप धारण कर लिया । कतिपय साधुओं के मस्तिष्क में एक व्यापक सन्देह उत्पन्न हो गया । उन्होंने सोचा हमने असंयमी देव को साधु समझ कर वन्दना की । ऐसी स्थिति में क्या पता चल सकता है कि कौन वास्तव में साधु है और कौन साधु नहीं है ? बेहतर है कि कोई किसी को वन्दना ही न करे। इस प्रकार विचार कर उन्होंने आपस में वन्दन व्यवहार बन्द कर दिया । स्थविरों ने उन्हें समझाया-वह वास्तव में साधु नहीं था, देव था, यह आपने कैसे जाना ? देव के कहने से ही न ! अगर आप देव के कथन पर विश्वास कर सकते हैं तो जो साधु अपने को साधु कहते हैं, उनके कथन पर विश्वास क्यों नहीं करते? देव की अपेक्षा साधु का कथन अधिक प्रामाणिक होता है । फिर भी आप देव के कहने को सत्य समझें और साधु के कथन को असत्य समझलें, यह न्यायसंगत नहीं है। इस प्रकार बहुत कुछ समझाने-बुझाने पर भी वे सन्देहग्रस्त साधु समझ न सके। तब उन्हें संघ से पृथक् कर दिया गया । पृथक् हुए साधुओं की मंडली घूमती-घूमती राजगृह नगर में पहुँची। वहां के राजा उस समय बलभद्र थे । उन्हें इन साधुओं की भ्रान्त धारणा का पता चल चुका था । बलभद्र जिनमार्ग के श्रद्धालु श्रावक थे । अतएव उन्होंने इन साधुओं को सन्मार्ग पर लाने का निश्चय किया । अपने सेवकों द्वारा साधुओं को बुलवाया । साधुओं के आने पर राजा ने आज्ञा दी-"इन सबको मदोन्मत्त हाथियों के पैरों से कुचलवा दिया जाय ।" देखने सुनने वाले दंग रह गए । राजेसभा में सन्नाटा छा गया । साधुओं के पैर तले की धरती खिसक गई। लोगों ने राजा के भीतरी आशय को समझा नहीं था, अतएव उनके हृदय में उथल-पुथल मच गई । मगर राजा के आदेश के सामने कोई चूं न कर सका। __ मदमस्त हाथी लाये गये और साधु एक कतार में खड़े कर दिये गये । साधुओं के सिर पर मौत मंडराने लगी । अपना अन्तिम समय समझ कर उनमें से एक . साधु ने बचाव करने का विचार किया । उसने सोचा-"जब मरना है तो डरना क्या?, तो आखिर राजा से पूछ तो लेना चाहिए कि किस अपराध में हमें यह भy
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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