SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48 आध्यात्मिक आलोक समस्त धार्मिक क्रियाकाण्ड अहिंसा के ही पोषक, सहायक एवं समर्थक हैं, यह निर्विवाद है। भारतवर्ष के दो प्रधान धर्मों के जो उल्लेख आपके समक्ष उपस्थित किये गये हैं, उनमें अत्यन्त समानता तो स्पष्ट है ही किन्तु थोड़ा-सा अभिप्राय-भेद भी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर प्रतीत हुए बिना नहीं रहता। व्यासजी ने पर पीड़ा को पाप कहा है, मगर पर को पीड़ा पहुँचाना एक बाह्य क्रिया है। पर बाहर की क्रिया किससे प्रेरित होती है ? उसका मूल क्या है ? इस प्रश्न का उनके कथन में उत्तर नहीं मिलता | व्यासजी ने इस बारीकी का विश्लेषण नहीं किया । मगर आचार्य अमृतचन्द्र ने उस ओर ध्यान दिया है । अन्तःकरण में राग-द्वेष रूपी विकार जव उत्पन्न होता है तभी मनुष्य दूसरों को पीड़ा पहुँचाता है । इस कारण आचार्यजी ने रागादि को भी हिंसा कहा है । इस कथन की विशेषता यह है कि कदाचित् परपीड़ा उत्पन्न न होने पर भी रागादि के उदय से जो भावहिंसा होती है, उसका भी इसमें समावेश हो जाता है । इस प्रकार जैनागम की दृष्टि मूल-स्पर्शिनी और गम्भीर है। ___इतने विवेचन से आप समझ गए होंगे कि मूल पाप हिंसा है । असत्य, स्तेय आदि उसकी शाखाएं अथवा प्रशाखाएं हैं । शास्त्रकार अत्यन्त दयालु और सर्वहितकारी होते हैं । वे तत्त्व को. इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि सभी स्तरों के मुमुक्षु साधक उसे हृदयंगम कर सकें और जो आचरण करने योग्य है उसे आचरण में ला सकें । अतएव आचरण की सुविधा के लिए विभिन्न व्रतों का पृथक्-पृथक् नामकरण किया गया है । अणुव्रतों, गुणवतों और शिक्षाव्रतों का एक मात्र लक्ष्य यही है कि आराधक असंयम से बच सके ओर स्वात्म रमण की और अग्रसर हो सके। इसी उद्देश्य से यहां भी व्रतों और उनके अतिचारों का विवेचन किया जा रहा है । ये सभी व्रत आत्मा का पोषण करने वाले हैं, अतएव पौषंध हैं, किन्तु पौषध शब्द ग्यारहवें व्रत के लिए रूढ़ है। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या, ये विशिष्ट दिन (पर्व) समझे जाते हैं । इनमें उपवास आदि तपस्या करना, समस्त पाप-क्रियाओं का परिहार करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और स्नान आदि शारीरिक श्रृंगार का त्याग करना पौषधव्रत कहलाता है । इसे 'पौषधोपवास' भी कहते हैं । 'पौषध' और 'उपवास' इन दो शब्दों के मिलने से 'पौषधोपवास' शब्द निष्पन्न होता है । 'उप-समीपे वसनं उपवासः' अर्थात् अपनी आत्मा एवं परमात्मा के समीप वास करना और सांसारिक प्रपंचों से विरत हो जाना उपवास कहा गया है । खाना-पीना आदि क्रियाओं में समय. नष्ट न . करके त्यागभाव से रहना, अपने स्वभाव के पास आना है । राग-द्वेष की परिणति से
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy