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________________ आध्यात्मिक आलोक 483 से देखने पर पता चलता है कि प्रत्येक पापाचरण हिंसा का ही रूप है । असत्य भाषण करना हिंसा है, अदत्त वस्तु को ग्रहण करना हिंसा है, अब्रह्मचर्य का सेवन हिंसा है और ममता या आसक्ति का भाव भी हिंसा है । आचार्य अमृतचन्द्र ने इस तथ्य को स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है । वे कहते हैं आत्मपरिणाम हिंसन-हेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् अनृतवचनादि-केवल-मुदाहृतं शिष्यबोधाय।। तात्पर्य यह है कि असत्य भाषण, अदत्तादान आदि सभी पाप वस्तुतः हिंसा रूप ही हैं, क्योंकि उनसे आत्मा के परिणाम का अर्थात् शुद्ध उपयोग का घात होता है। फिर भी असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह को हिंसा से पृथक् जो निर्दिष्ट किया गया है, उसका प्रयोजन केवल शिष्यों को समझाना ही है । साधारण जन भी सरलता से समझ सकें, इसी उद्देश्य से हिंसा का पृथक्करण किया गया है। आगे यही आचार्य कहते हैं अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसैव । तेषामेवोत्पत्तिः हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। जिनागम का आकार बहत विशाल है। पूरी तरह उसे समझना बहुत कठिन है। उसके लिए असीम धैर्य, गहरी लगन और ज्वलन्त पुरुषार्थ चाहिये । किन्तु सम्पूर्ण जिनागम का सार यदि कम से कम शब्दों में समझना हो तो वह यह है-'रागादि कषाय भावों की उत्पत्ति होना हिंसा है एवं रागादि कषाय भावों का उत्पन्न न होना अहिंसा है।' इस प्रसंग में वैदिक धर्म का कथन भी हमें स्मरण हो आता है जो इससे बहुत अंशों में मिलता-जुलता है । वह है अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य क्यनं द्वयम् । परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ।। लम्बे-चौड़े अठारह पुराणों में व्यासजी ने मूल दो ही बातों का विस्तार किया है । वे दो बातें हैं (9) परोपकार से पुण्य होता है। (() पर को पीड़ा उपजाना पाप है । इस प्रकार अहिंसा धर्म है और हिंसा पाप है, इस कथन में जैन शास्त्र और वैदिक शास्त्र का सार समाहित हो जाता है। दोनों के कथन के अनुसार शेष
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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