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________________ आध्यात्मिक आलोक 485 रहित होकर अपने स्वभाव में रमण करने का यह अभ्यास है । उपवास का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ।। क्रोध आदि कषायों का, इन्द्रियों के विषयों के सेवन का और आहार का त्याग करना सच्चा उपवास है । कषायों और विषयों का त्याग न करके सिर्फ आहार का त्याग करना उपवास नहीं कहलाता-वह तो लंघन मात्र है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि पौषध का अर्थ है-आत्मिक गुणों का पोषण करने वाली क्रिया । जिस-जिस क्रिया से आत्मा अपने स्वाभाविक गुणों का विकास करने में समर्थ बने, विभाव परिणति से दूर हो और आत्म-स्वरूप के सनिकट आए, वही पौषध है। पौषधव्रत अंगीकार करते समय निम्नोक्त चार बातों का त्याग आवश्यक है(७) आहार का त्याग । (२) शरीर के सत्कार या संस्कार का त्याग-जैसे केशों का प्रसाधन, स्नान, चटकीले-भड़कीले वस्त्रों का पहिनना एवं अन्य प्रकार से शरीर को सुशोभित करना। (३) अब्रह्म का त्याग । (४) पापमय व्यापार का त्याग । मन को सर्वथा निर्व्यापार बना लेना संभव नहीं हैं । उसका कुछ न कुछ व्यापार होता ही रहता है । तन का व्यापार भी चलेगा और वचन के व्यापार का विर्सजन कर देना भी इस व्रत के पालन के लिए अनिवार्य नहीं है । ध्यान यह रखना चाहिए कि ये सब व्यापार व्रत के उद्देश्य में बाधक न बन जाएं । विष भी शोधन कर लेने पर औषध बन जाता है, इसी प्रकार मन, वचन और काया के व्यापार में आध्यात्मिक गुणों का घात करने की जो शक्ति है उसे नष्ट कर दिया जाय तो वह भी अमृत बन सकता है। तेरहवें गुणस्थान में पहुँचे हुए सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त भगवान के भी तीनों योग विद्यमान रहते हैं, किन्तु वे उनकी परमात्म दशा में बाधक नहीं होते । इसी प्रकार सामान्य साधक का यौगिक व्यापार यदि चालू रहे किन्तु वह पापमय न हो तो व्रत की साधना में बाधक नहीं होता। वास्तविकता यह है कि बाह्य प्रवृत्ति मात्र से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । नेत्र देखते हैं, कान सुनते हैं, अन्य इन्द्रियां अपना-अपना कार्य करती हैं। इन्द्रियदमन का अर्थ कई लोग उनको बाहरी प्रवृत्ति को रोक देना समझते हैं । आँखे फोड़
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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