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________________ [ ७२ ] पात्रता कोई भव्यजीव जब वास्तविक सम्यग्दृष्टि प्राप्त कर लेता है, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझ लेता है, संसार की असारता को विदित कर लेता है, परिग्रह को समस्त दुःखों का मूल समझ लेता है और यह सब जान लेने के पश्चात् आत्मस्वरूप में निराकुलतापूर्वक रमण करने के लिए संसार से विमुख हो जाता है, तब जगत.का विशालतम वैभव भी तुच्छ प्रतीत होने लगता है । राजसी भोग उसे भुजंग के समान प्रतीत होने लगते हैं । तब वह मुनिधर्म की साधना में तत्पर हो जाता है । ऐसा साधक शनैः शनैः कदम उठाने की अपेक्षा एक साथ शक्तिशाली कदम उठाना ही उचित मानता है। कुछ साधक ऐसे भी होते हैं जो धीरे-धीरे अग्रसर होते हैं । अन्तर में ज्ञान की चिनगारी प्रज्वलित होते ही वे अकर्मण्य न रह कर जितना सम्भव हो उतनी ही साधना करते हैं । वह देशविरति को अंगीकार करते हैं । कुछ भी न करने की अपेक्षा थोड़ा करना बेहतर है । हम कह सकते हैं-'अकरणान्मन्द करणं श्रेयः ।' इस प्रकार देशविरति अविरति से श्रेष्ठ है । आनन्द सर्वविरति को अंगीकार करने में समर्थ नहीं हो सका, अतः उसने देशविरति ग्रहण की । इस प्रसंग में नवमें व्रत सामायिक के अतिचारों का निरूपण किया जा चुका है । बतलाया गया था कि सामायिक की अवस्था में मन, वचन और काया का व्यापार अप्रशस्त नहीं होना चाहिए। जिस व्यापार से समभाव का विघात हो, वह सब व्यापार अप्रशस्त कहलाता है । साथ ही उस समय 'मैं सामायिक व्रत की आराधना कर रहा हूँ यह बात भूलनी नहीं चाहिए। यह सामायिक का भूषण है, क्योंकि जिसे निरन्तर यह ध्यान रहेगा कि .मैं इस समय सामायिक में हूँ, वह इस व्रत के विपरीत कोई प्रवृत्ति नहीं करेगा । इसके विपरीत सामायिक का भान न रहना दूषण है । सामायिक के समय भी वैसा
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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