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________________ 475 आध्यात्मिक आलोक भी वैसा ही बोलना जैसा अन्य समय में बोला जाता है या अन्य कार्य करना, यह अनुचित है । इसी प्रकार सामायिक व्रत का आराधन व्यवस्थित रूप से करना श्रावक का परम कर्तव्य है । इसका तात्पर्य यह है कि सामायिक व्रत में जिन मर्यादाओं का पालन करना आवश्यक है, उन्हें पूरी तरह ध्यान में रखा जाय और पालन किया जाया सामायिक के उक्त पांचों दोषों से ठीक तरह बचा जाय और भावपूर्वक, विधि के साथ, सामायिक का आराधन किया जाय तो जीवन में समभाव की वृद्धि होगी और जितनी समभाव की वृद्धि होगी उतनी ही निराकुलता एवं शान्ति बढ़ेगी । श्रावक का दसवां व्रत देशावकाशिक है । यह व्रत एक प्रकार से दिग्वत में । की हुई मर्यादाओं के संक्षिप्तीकरण से सम्बन्ध रखता है। दिग्द्रत में श्रावक ने जीवन भर के लिए जिस-जिस दिशा में जितनी-जितनी दूर तक आवागमन करने का नियम लिया था, उसे नियतकाल के लिए सिकोड़ लेना देशावकाशिक व्रत है। उदाहरणार्थकिसी श्रावक ने पूर्व दिशा में पांच सौ मील तक जाने की मर्यादा रखी है । किन्तु आज वह मर्यादा करता है कि मैं बारह घन्टों तक पचास मील से अधिक नहीं जाऊंगा तो यह देशावकाशिक व्रत कहलाएगा। . इस व्रत का उद्देश्य है आशा-तृष्णा को घटाना और पापों से बचना । की हुई मर्यादा से बाहर के प्रदेश में हिंसा आदि पापों का परित्याग स्वतः हो जाता है और वहां व्यापार आदि करने का त्याग हो जाने के कारण तृष्णा का भी त्याग हो जाता है। पहले बतलाया जा चुका है कि व्रत को सोच-समझ कर दृढ़ संकल्प के साथ अंगीकार करना चाहिए और अंगीकार करने के पश्चात् हर कीमत पर उसका पालन करना चाहिए । व्रत को स्वीकार कर लेना सरल है मगर पालना कठिन होता है । किन्तु जिसका संकल्प सुदृढ़ है उसके लिए व्रत पालन में कोई बड़ी कठिनाई नहीं होती । हां, यह आवश्यक है कि व्रत के स्वरूप को और उसके अतिचारों को भली-भाँति समझ लिया जाए और अतिचारों से बचने का सदा ध्यान रखा जाए । इस व्रत के भी पांच अतिचार जानने योग्य हैं किन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं। वे इस प्रकार हैं (9) आनयन प्रयोग : मनुष्य के मन में कभी-कभी दुर्बलता उत्पन्न हो जाती है। किसी प्रकार का व्रत की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला आकर्षण पैदा हो जाता है । उस समय वह कोई रास्ता निकालने की सोचता है । मर्यादित क्षेत्र से बाहर उसे जाना नहीं है मगर वहां की किसी चीज की आवश्यकता उसे महसूस
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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