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________________ आध्यात्मिक आलोक 393 बहुत-से लोग लोभ-लालच में पड़ कर मदिरा बनाते या बेचते हैं। वे समझते हैं कि इस व्यापार में हमें बहुत अच्छा मुनाफा मिलता है। किन्तु ज्ञानीजन कहते हैंतूने पैसा इकट्ठा कर लिया है और ऐसा करके, फूला नहीं समा रहा, यह सब तो ठीक है, मगर थोड़ा इस बात पर भी विचार कर कि तूने कर्म का भार अपनी आत्मा पर कितना बढ़ा लिया है ? जब इन कर्मों का उदय आयेगा और प्रगाढ़ दुःख वेदना का अनुभव करना पड़ेगा, उस समय क्या वह पैसे काम आयेंगे ? उस धन से दुःख को कैसे दूर किया जा सकेगा ? पैसा परभव में साथ जा सकेगा? डालडा तेल का निर्माता छुरी चलाता नहीं दीख पड़ता, मगर वह प्रचार करता है-हम देश की महान सेवा कर रहे हैं। यह वनस्पति का घी है, पौष्टिक वस्तु है। लोग इसका अधिक सेवन करेंगे तो दूध की बचत होगी और बच्चों को दूध अधिक सुलभ किया जा सकेगा। इस प्रकार जनता के जीवन के साथ खिलवाड़ की जाती है और उसे देश सेवा का जामा पहनाया जाता है। डालडा का तो उदाहरण के तौर पर ही उल्लेख किया गया है। आज ऐसी अनगिनत चीजें चल पड़ी हैं जो मनुष्य के स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक हैं मगर उनके निर्माता लुभावने विज्ञापन करते हैं और जनता उनके चक्कर में आ जाती है। इनके बनाने में अपरिमित जीवों की हिंसा होती है, परन्तु इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। मद्यपान पर आज कोई अंकुश नहीं है। बहुत-से अच्छे और धार्मिक संस्कार वाले घरों के नवयुवक भी बुरी संगति में पड़ कर भूले-भटके इस महा अनर्थकारी एवं जिन्दगी को बर्वाद कर देने वाली मदिरा के शिकर हो जाते हैं। इस ओर विवेकशील जनों का ध्यान आकर्षित होना चाहिये और अपनी संतान को मदिरा पीने की लत वालों दुर्व्यसनियों की संगति से दूर रखना चाहिये। जिस घर में मदिरा का प्रवेश एक बार हो जाता है, समझ लीजिये वह घर बर्बाद हो गया। उसके सुधरने और सम्भलने की आशा बहुत ही कम रह जाती है। अतएव महाहिंसा से निर्मित तथा शरीर और दिमाग को अत्यन्त हानि पहुंचाने वाली मदिरा जैसी मादक वस्तुओं का व्यापार और सेवन श्रावक के लिये वर्जनीय कहा गया है। (७) विस वाणिज्जे (विष वाणिज्य)- विष का और विषैले पदार्थों का व्यापार करना विष वाणिज्य कहलाता है। सोमिल, संखिया, गांजा, अफीम आदि अनेक प्रकार के विष होते हैं। ये सभी ऐसे पदार्थ हैं जो जीवन की पोषण शक्ति पर घात करते हैं और प्राण हानि भी करते हैं। ऐसी वस्तुओं का व्यापार अनेक दृष्टियों से दर्जनीय है। प्रथम तो यह
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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