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________________ 392 आध्यात्मिक आलोक श्रुति दो प्रकार की है- अपरा और परा। ऊपर जिस श्रुति के विषय में कहा गया है वह सब अपरा श्रुति कहलाती है। यह सामान्य श्रुति है जो व्यावहारिक प्रयोजन की पूर्ति करती है। परा श्रुति पारमार्थिक श्रुति है जिसके द्वारा मानव अपनी आत्मा को ऊपर उठाता है। उससे आत्मा को अपने स्वरूप का बोध होता है, तप, क्षमा, अहिंसा आदि सद्गुणों की भावना जागृत होती है और क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा आदि की भावना दूर भागती है। इसी परा श्रुति को ज्ञानी पुरुष मुक्ति का अंग मानते हैं। यह श्रुति सर्वसाधारण को दुर्लभ है। संसार के अनन्त अनन्त जीवों में से बिरले ही कोई परा श्रुति का संयोग पाते हैं और उनमें से भी कोई-कोई ही ग्रहण करने में समर्थ होते हैं। ग्रहण करने वालों में से भी कोई विरले मानव ही उसे परिणत करने में समर्थ होते हैं। भूमि में डाले गये सभी बीज अंकुरित नहीं होते। इसमें किसान का क्या दोष है? कदाचित् समस्त बीज भी नष्ट हो जायँ तो भी किसान क्या करे? बीजों के अंकुरित होने में कई कारणों की आवश्यकता होती है। उनमें से कोई एक न हुआ तो बीज अंकुरित नहीं होता। इसी प्रकार व्याख्याता ज्ञानीजनों के वचनों को श्रवण कराता है। मगर श्रवण करने वालों की मनोदशा अनुकूल न होगी तो श्रवण सार्थक नहीं हो सकेगा। जिनका भाग्य ऊंचा है या जो उच्चकोटि के पुण्यानुबन्धी पुण्य से युक्त हैं और जिनकी आत्मा सम्यक्त्व से उज्ज्वल है या जिनका मिथ्यात्वभाव शिथिल पड़ - गया है, वही मनुष्य श्रुति से वास्तविक लाभ उठा सकते हैं। गृहस्थ आनन्द ने वीतराग की वाणी श्रवण की, ग्रहण की और उसका परिणमन किया। उसी का प्रसंग यहां चल रहा है। भौगोपभोग व्रत के कर्म विषयक अतिचारों का जिन्हें कर्मादान कहते हैं, विवेचन चल रहा है। कल रसवाणिज्य के विषय में कहा गया था। मद्य का व्यवसाय करना खर-कर्म है। पूर्वकाल में मद्य का उपयोग कम होता था। उस समय की प्रजा में भोग की लालसा कम थी। अतएव भोग्य पदार्थों का भी आज की तरह प्रचुर मात्रा में आविष्कार नहीं हुआ था। उस समय के लोग बहुत सादगी के साथ जीवन व्यतीत करते थे। और स्वल्प सन्तोषी होने के कारण सुखी और शान्त थे। आज वह बात नहीं है। भाँति-भाँति की मदिराएं तो आजकल बनती और बिकती ही हैं, अन्य पदार्थों में, विशेषतः दवाइयों में भी उनका सम्मिश्रण होता है। एलोपैथिक दवाएं, जो द्रव रूप में होती हैं, उनमें प्रायः मदिरा का संयोग पाया जाता है, जो लोग मदिरापान के त्यागी है उन्हें विचार करना चाहिये कि ऐसी ' दवाओं का सेवन कैसे कर सकते हैं ?
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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