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________________ आध्यात्मिक आलोक 195 बिगड़ते हैं । इसी तरह जलाशय और सार्वजनिक स्थानों में भी प्रमाद से ही गन्दगी बढ़ती है । लोग मलेरिया उन्मूलन आन्दोलन चलाते जाते हैं पर रोग वृद्धि के कारणभूत प्रमाद को नहीं घटाते । घर और गली में नाली सड़ती रहे वैसी स्थिति में दवा छिड़कने मात्र से क्या हो सकता है ? अतः बुराइयों तथा प्रमाद को हटाकर उसके स्थान में अच्छाई और पौरुष को बढ़ाना होगा, अन्यथा खाली जगह देखकर प्रमाद डेरा डाल देगा । अगर किसी को हटाना है तो निश्चय ही दूसरे को वहां बैठाना होगा । कहा भी है- “खाली मन शैतान का घर । " सूने मन में विकार घर कर लेते हैं। मन के सूनेपन को हटाने के लिए इन्द्रियों को सत्कार्य में, मन को प्रभु स्मरण, धर्म ध्यान और शुभ चिन्तन में तथा वाणी को स्वाध्याय में लगाया जाय, तो प्रमाद को स्थान नहीं मिलेगा । इन्द्रियों को अच्छे कामों में, इधर-उधर भटकने वाले मन को सद् अध्यवसायों में तथा वाणी को स्वाध्याय में लगाने से उसकी बेकारी का कोई प्रश्न ही नहीं उठेगा । धर्म साधना करने से साधक का बेकार मन काम में लग जाता और शारीरिक सुस्ती भाग जाती है । प्रवचन धर्म कथा आदि सुनने से श्रोता की सुस्ती भाग जाती है । चित्त वृत्ति की एकाग्रता से कभी-कभी भयंकर व्याधियां भी मिट जाती हैं, क्योंकि मन के शुभ अध्यवसायों में लग जाने के कारण रोग की कल्पना मन में नहीं आएगी । प्रमाद को दूर करने के लिए शारीरिक और वाचिक संयम कर लेने से मन आसानी से ध्यान में लग सकता है। भगवान के भजन में मन को लगाने के लिए शारीरिक और वाचिक संयम चाहिए । पवित्र साधना एवं पुरुषार्थ के बिना यह संभव नहीं है । बीज का अंकुरित होने का स्वभाव है, पर किसी कोठी या पात्र में बंद रखने से अंकुर नहीं निकलता । इसके लिये किसी छोटे मिट्टी के पात्र में बीज डालकर खाद पानी व धूप उसे दिया जाय तो अंकुर निकल आएगा । जैसे वस्तु में मूल रूप से अंकुरित होने का गुण होते हुए भी निमित्त के बिना वह बाहर प्रकट नहीं होता, उसी प्रकार आत्मिक शक्तियों को प्रगट करने के लिए भी योग्य निमित्त चाहिए । निमित्त पुरुषार्थ को गतिशील करता है । कभी-कभी परिपक्व क्षण में साधारण सा निमित्त पाकर भी वह गुण विकसित हो जाता है, जो बड़े-बड़े उपदेश से भी संभव नहीं होता । उदाहरण स्थूलभद्र का हमारे सामने है । स्थूलभद्र को यदि शिक्षा देकर कोई रूपकोषा का संग छुड़ाना चाहता, तो संभव है छूटता या नहीं परन्तु यह भान होते ही कि जिस मन्त्री पद ने पिता की जान ले ली वह सुख का मूल नहीं, दुःख का कारण है, स्थूलभद्र ने राजा के अधीन रहना स्वीकार नहीं किया । लोकोक्ति भी प्रचलित है- “जहां रहणो वहां हांजी हांजी कहणो ।” उसने निश्चय किया कि उसे
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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