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________________ 194 आध्यात्मिक आलोक आवेग में कोई भले आदमी को नालायक आदि कटु वचन कह देता है, यह वाणी का प्रमाद है । कषाय के प्रमाद को मस्तक में धारण कर मानव वाणी तथा व्यवहार दोनों को असंयत बना लेता है । क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय तथा शब्द स्पर्शादि विषय रूप प्रमाद के कीटाणु साधक के मन में घुसकर उसे भटका देते हैं और धीरे-धीरे लक्ष्य से गिरा देते हैं। अतः साधक को चाहिये कि वह सावधानीपूर्वक दैनिक व्यवहार करे और आवेश में कोई काम नहीं करे । आवेश में आकर किया हुआ कोई भी काम स्व पर का हितकारक नहीं होता । पागल की बातों को जैसे हम बुरी नहीं मानते, वैसे क्रोधादि से पराधीन व्यक्ति की बातों को भी बुरी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि वह परवश एवं दया का पात्र है । शान्त चित्त वाला कभी ऐसे असंयत या मदमत्त की बातों को बुरी नहीं मानता । विषय कषाय के वेग से स्वयं बचते हुए दूसरे के ऊपर भी दया दिखाने में संकोच नहीं करना चाहिए, जो कि उसका शिकार बन गया है । इस प्रकार प्रमाद से उत्पन्न अनर्थ से बचाव हो सकता है। जब द्रव्य प्रमाद होता है, तो वह हिंसा का कारण होता है। रात को या अन्धेरे में खाना, हिंसात्मक है, क्योंकि उस समय खाद्य वस्तु स्पष्ट देखने में नहीं आती । पानी छानते समय कपड़े का ध्यान नहीं रखना प्रमाद है और बिना छाने पानी पी लेना अनर्थ दण्ड है। प्रमाद के कारण मनुष्य वस्तु बिगाड़ने के साथ ही साथ शारीरिक हानि भी करते हैं । दीवाली के लिए रात को घर झाड़ना, सफाई करना आदि अनर्थ दण्ड हैं । बिना ढके पानी आदि रखना भी अनर्थ दण्ड है। विवेकी साधक को गृहस्थ जीवन में पद-पद पर सावधानी की आवश्यकता है। आटे, दाल, मिर्च आदि में कीटाणु लग जाते हैं । दूध में शक्कर डालकर एक खुली कटोरी में उसे रख दिया जाय तो जंतु पड़ सकते हैं । कण्डे तथा लकड़ी हर एक घर में जलाने पड़ते हैं परन्तु बिना देखे यदि इनका उपयोग किया जाय तो अनेक जीव जन्तुओं की हिंसा हो सकती है जो कि अनर्थ दण्ड है । धर्म सभा में जहां कहीं प्रमाद वश यूंक देना एवं विषय कषाय रूप अपध्यान करना भी अनर्थ दण्ड है। गृहस्थ जीवन में हर वस्तु का विवेक से उपयोग किया जाय तो जीव हिंसा से बचना कोई कठिन नहीं है। मनुष्य का प्रमाद आज इतना बढ़ गया है कि तन का भरण पोषणं भी शायद कुछ दिनों के बाद भूलने जैसा हो जाय, तो कुछ आश्चर्य नहीं । लोग प्रमाद वश घर के आस पास मल डालते तथा गन्दी वस्तुएं इकट्ठी करते हैं । इससे कीटाणु बनकर विविध रोगों का प्रसार होता है तथा पड़ोसियों से आपसी सम्बन्ध
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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