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________________ 126 आध्यात्मिक आलोक मिली, जिससे वह चोट कर सकता । वह क्रोधान्ध था ही, झट सामने लुहार की दुकान से एक तपा हुआ, लोहे का गोला उठा लिया । आवेग में उसने गोला उठा तो लिया मगर प्रहार नहीं कर सका क्योंकि तप्त लोह ने उसके हाथ को जला दिया और उसे प्रहार के लायक नहीं रहने दिया । इसी प्रकार विरोध से विरोध को दबाने वाला पहले स्वयं जलता है । जो विरोधाग्नि का मुकाबला शान्ति के शीतल जल से करते हैं, वे विरोधी को भी जीत लेते हैं । वररुचि विद्वान था, परन्तु उसके मन में प्रतिहिंसा की आग जल रही थी । अनन्त काल से मनुष्य, इसी प्रकार के विकारों से जलता आया है। दीपक पर जलने वाले पतंगों के अनन्य प्रेम की तो संसार तारीफ भी करता है किन्तु विकार-दग्धों पर आंसू बहाने वाला या उनकी प्रशंसा करने वाला आज तक एक भी उदाहरण सामने नहीं है। वस्तुतः ज्ञानवान् तो वह है जो काम क्रोधादि विकारों को अपने मन से दूर हटा दे, क्योंकि इसने हमारा बहुत अहित किया है, हमारी आत्मा इन्हीं के द्वारा कलुषित होती आई है । रावण, कौरव, कंस का उदाहरण हमें सचेष्ट करने के लिये पर्याप्त है, और यदि हमने इनसे कुछ हासिल किया तो न सिर्फ मन को अत्यन्त शान्ति मिलेगी वरन् लोक और परलोक दोनों उज्ज्वल हो सकेगे ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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