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________________ आध्यात्मिक आलोक 93 लिए महाराज मगधपति प्रयास करने लगे । भगवान महावीर स्वामी ने सम्राट श्रेणिक. को बतलाया कि यदि एक दिन भी वह कसाई हिंसा को बन्द कर दे तो तुम्हारी नर्क गति बच सकती है । महाराज श्रेणिक ने उस कसाई से एक दिन के लिए कसाईखाना बन्द करने को कहा तो कसाई ने उत्तर दिया कि महाराज ! यह मेरा धर्म है और यही मेरी आजीविका है । अतएव और जो कुछ भी आप कहें सो कर सकता हूँ पर यह धन्धा एक दिन तो क्या एक क्षण के लिए भी नहीं बन्द कर सकता | अज्ञानता के कारण वह धर्म और अधर्म के मर्म को नहीं समझता था । उसने अपनी कुटेव या दुर्भाव को ही धर्म समझ रखा था । जो व्यक्ति धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य, बन्ध और मोक्ष तथा जीव और अजीव में भेद नहीं समझता वह सचमुच में दयनीय और शोचनीय है । धर्म आत्मा को शान्ति दिलाता है और अधर्म से अशान्ति मिलती है | आत्मा का शुद्ध गुण जिससे दब जाय या मलीन हो जाय, उसे अधर्म कहते हैं | ज्ञान, आनन्द, शुद्धता, शक्ति और निष्कलंकता आदि आत्मा के गुण हैं | जिन विचारों और व्यवहारों से विकार दवे, या दूर हों तथा मैले आचार तथा व्यवहार शुद्ध हों, वे धर्म हैं । पानी गंदला होने पर उसे गरम करके साफ करते हैं । मूल में वह ठंडा है, पर जब भट्टी पर चढ़ा और अग्नि की आंच रूप पर-धर्म ( अधर्म ) के साथ उसका संग हुआ तो वह गरम हो गया, पानी ने अपना स्वधर्म ठंडापन छोड़ दिया । गन्दे पानी में यदि निर्मली ( एक जड़ी विशेष ) को डाल दें तो पानी शुद्ध हो जाता है। निर्मली के सत्संग के कारण गन्दे पानी का गन्दापन दब गया । ऐसे ही हवा गर्म पानी के लिए ठण्डा बनाने का कारण ( धर्म ) बन गई । इसी प्रकार आत्मा का स्वभाव क्रोध करना नहीं है परन्तु कुछ कारण आ जाने से मनुष्य गरम हो जाता है। यह आत्मा का अधर्म है। पुत्र कलत्र को क्रोधावेश में मारना-पीटना आत्मा का अधर्म है। यह तमोगुण का प्रकटीकरण है, क्योंकि यह बाहर के कुसंग से आया है । आंख के मूल में स्वभावतः सफेदी रहती है, किन्त तमोगण के प्रसंग उपस्थित होते ही उसमें ललाई छा जाती है। सफेदी की जगह यह रक्तिम परिवर्तन अधर्म है । यदि दुकानदार या महाजन तराजू को लोभवश इधर-उधर करना धर्म समझे ता वह भूल है, अधर्म है । वह लोभ के कारण अपने स्वभाव से हट गया । दुकानदार यदि ग्राहक का सिर मुंडकर उसे अर्थहीन कर दे तो यह भी अधर्म है।' कृषक स्वार्थ छोड़कर यदि दया करे, और जीवों को हिंसा से बचावे तो यह धर्म है । व्यवहार में आत्मा के स्वभाव के निकट लाने वाले व्यवहार भी धर्म हैं जैसे-प्रामाणिकता रखना, धोखा न देना आदि । सम्यक् दृष्टि व्यक्ति के लिए दूसरे को बिना उजाड़े या दूसरे की बिना हानि किए अपना कार्य बनाना उचित है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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